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व्रत कथा कोष
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चार महिने तक नित्य पूजा क्रम करे, नन्दादीप लगावे, आगे आने वाली कार्तिक शुक्ला पोर्णिमा के दिन व्रत का उद्यापन करे, उस समय जिनेन्द्र भगवान का महाभिषेक करे, श्रुत व गुरु की पूजा करे, पद्मावति आदि देवियों की पूजा करे, मिट्टी के बारह लाल कुडे लेकर धोवे, भगवान के आगे शुद्ध भूमि पर अक्षत से बारह स्वस्तिक निकाले, उन स्वस्तिकों पर ह्रींकार बीजमन्त्र लिखकर, उन कुडों को स्वस्तिक के ऊपर रखे उन कुडों में बारह प्रकार का धान्य भरे, उसके बाद बारह कलश लेकर उन कलशों में दूध, घी, शक्कर से भरकर उन कुडों पर रखे, ऊपर सूत लपेटे, उसके ऊपर बाहर प्रकार का नैवेद्य रखे।
दो सौभाग्यवती स्त्रियों को दो वायना भरकर देवे, एक वायना अपने घर ले जावे, सत्पात्रों को दान देवे ।
कथा
एक बार राजा श्रेणिक अपने नगरवासियों के साथ भगवान महावीर के समवशरण में गये, उनमें एक राजश्रेष्ठि विजयसेन और विजयावती भी थे, कुछ समय भगवान का उपदेश सुनने के बाद, विजयावती भगवान को हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी कि हे जिनेन्द्रदेव ! मेरा उद्धार का कुछ उपाय बताइये, तब भगवान उसको संबोधित करके कहने लगे कि हे देवी, तुम सौख्यसुत संपति व्रत को करो, इस प्रकार कहकर भगवान ने उसे व्रत की विधि बतायी, उस सेठानी ने व्रत को भक्ति से ग्रहण किया, नगर में वापस लौट आये, अपनी नगरी में प्राकर व्रत को अच्छी तरह से पालन किया, अन्त में उद्यापन किया, व्रत के प्रभाव से ऋद्धिवृद्धि बढ़ गई, धन समृद्धि बढ़ी, उसके कारण उसको अहंकार बढ़ गया, धर्म को उदासीन भाव से पालन करने लगी।
उसके कारण जितने भी उसके पुत्र थे, वे सब अलग-अलग हो गये और माता-पिता का विरोध करने लगे, घर की लक्ष्मी नष्ट हो गई और दरिद्रता से समय व्यतीत करने लगे। एक बार सुभद्राचार्य मुनिराज पाहार के निमित्त नगर में आये, विजयावति ने मुनिराज का पडिगाहन कर मुनिराज को आहार दान दिया, आहार होने के उपरान्त, एक पाटे पर मुनिराज को विराजमान करके, सेठानी ने पूछा कि