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व्रत कथा कोष
शुद्धभाव सों छोरे प्रान, नगर उज्जैनी श्रेणिक जान । तहां दरिद्रो द्विज इक रहे, पाप उदै करि बहुदुख लहे ।। ता द्विज के यह पुत्री भई, पिता मात जमके बसि थई । तब यह दुःखवती अति होय, पाप समान न बैरो कोय । कष्ट-कष्ट कर वृद्ध जु भई, एक समै सो वन में गई । तहां सुदर्शन थे मुनिराय, अजितसेन राजा तिहिं जाय । धर्म सुनो भूपति सुखकार, यह पुनि मई तहां तिहिवार । अधिकलोक कन्या को जोय, पाप थको ऐसो पद होय ।।
दोहा
जास समै यह कन्यका, घास बोझ सिर धार । खड़ी मुनी वच सुनत थी, पुनि निजभार उतार ।
चौपाई मुनि मुखतें सुनि कन्याभाय, पूरबभव सुमरण जब थाय । याद करो पिछली वेदना, मूर्छा खाय परी दुख घना ।। तब राजा उपचार कराय, चेत करी पुनि पूछि बुलाय । पुत्री तू ऐसे क्यों भई, सुन कन्या तब यों वरनई ॥ पूरबभव वृतान्त बताय, मैं जु दुखायो थो मुनिराय । कड़वो तुम्बो को जुआहार, दोयो मुनि को अति दुखकार ।। सो अघ अबलों भी मुझ दहे, यों सुनि नप मनिवर सों कहे। यह किस विध सुख पावे अबै, जब मुनिराज बखानो तवै॥ जब सुगन्धदशमी व्रत धरे, तब कन्या अघसञ्चय हरे । कैसी विधि याको मुनिराय, तब ऋषि भादवमास बताय । सुदि पञ्चमि दिन सों प्राचरे, यथाशक्ति नवमी लों करे। दशमीदिन कीजे उपवास, ताकरि होय अधिक अघनास ॥