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व्रत कथा कोष
(८) प्रभावना अंग :-जिनधर्म पर श्रद्धा करना, उसकी प्रभावना करना, जिनधर्म का प्रचार करना।
इन आठ अंगों का पालन करके सम्यग्श्रद्धा बढ़ाना दर्शन विशुद्धि भावना है।
(२) विनय सम्पन्नता :-संसार में जीव अहंकार से (मान से) सब के दिल उतर जाता है । अभिमान के कारण यदि कोई अपने को सबसे बड़ा समझे तो वह बड़ा नहीं कहा जाता हैं। मन्दिर के ऊपर शिखर ही शोभा देता है पर यदि उसके ऊपर कौना बैठ गया तो शोभा देगा क्या ? नहीं। मान से मनुष्य दुःखी होता है, अपने से बड़ों का विनय करना, उनके गुणों की स्तुति करना, उनका आदर करना । जो मनुष्य अपने दोष स्वीकार करता है उसके दोष बढ़ते नहीं हैं। इसलिए दर्शन, ज्ञान और चारित्र, तप आदि का विनय करना, उनको यथार्थ समझना यही विनयसम्पन्नता है।
शीलवतेष्वनातिचार :-मर्यादा के बिना या प्रतिज्ञा के बिना मन को वश नहीं कर सकते हैं लगाम डाले बिना घोड़ा अंकुश में नहीं आता है । उसी प्रकार मन व इन्द्रियों को भी वश करने के लिए व्रतों का पालन करना चाहिए । अहिंसा अणुव्रत अर्थात् किसी भी जीव का घात न करना । — सत्याणुव्रत अर्थात् किसी को भी दुःख पहुंचे ऐसे वचन नहीं बोलना। अचौर्याणुव्रत अर्थात् दिये बिना कोई भी वस्तु नहीं लेना । ब्रह्मचर्य अर्थात् अपनी स्त्री के अलावा दूसरी सब स्त्रियों को बहन के समान देखना । परिग्रह व परिग्रह का प्रमाण करना ये ही पांच व्रत हैं, इनका पालन करने के लिये ७ शीलवत (४ दिग्वत ३ गुणवत) का पालन करना । यही शीलवतेष्वनातिचार व्रत है।
अभीक्षण ज्ञानोपयोग-मिथ्यात्व के उदय से जीव अपना भला किसमें है यह जानता नहीं है सांसारिक सुख के लिए चाहे जैसा मार्ग ग्रहण करता है जिससे उसे सुख के बिना दुःख ही मिलता है । इसलिए सच्चा ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। ऐसा विचार कर सच्चे ज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिये । यही ज्ञानोपयोग भावना है।
___ संवेग-संसारी जीव का विषय भोग की ओर ही ध्यान रहता है, उसको तीन लोक की पूरी सम्पत्ति भी मिल जाय तो सन्तोष नहीं है । पर उसकी इच्छा