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व्रत कथा कोष
जा प्रसाद भव दुस्तर तरो व्रत की निन्दा बहुरि न करो । मानुष जन्म जु विरलो पाय, श्रावक कुल उत्तम कुइ पाय || बारम्बार मिले नहिं श्राय, फणिपति कहे विसर जिन जाय । धर्म अहिंसा मन विस्तरो, पैंतिस प्रक्षर मन में धरो ॥ अन्तकाल ये होय सहाय, होइ सिद्धि स्वर्गों में ठांय । मन अपनो थिर राखो शांत, लेहु सकल निधि जाहु तुरन्त || बहुत सीख पद्मावति दई, पुनि अपने प्रस्थाने गई । श्रानन्द अधिक कुंवर मन भयो, हँसत हँसत सो घर को गयो ।
निधि दीनी बांधव बुलवाय, देखत सर्व विकल भयो प्राय । मूसि राव को मंदिर लियो, कहा उपाय कुंवर तुम कियो || निश्चय जाय श्राज निज लाज, नई उपाधि करी इन श्राज । जोरि प्रभागो खेती करे, बैल मरे के सूखा परे ॥ गुणधर दोष नहीं तुम तनो, यह लहणो लाभ प्रापनो । श्रौरहु चिन्तत श्रौरहु होय, कर्मलिखित नहि मेटत कोय || मूद्यो हियो न श्रावे सांस, थाक्यो बोल पसीजो गात । नैनन नीर बहै असरार, जिमि घन बरसे मूसलधार ॥ सतभाव, तात न कछू करो विसमाव । गयो, करो न चिन्ता इमि कहगयो ||
तब गुरणधर बोले शेषराय मोकों दे इतनी सुनत उठे करके प्यार कहै बड़वीर, धन धन
विसमाय, सबै कुंवर तें लिपटे धाय ।
गुणधर साहसधोर ||
नेम धरम संजम श्राचार, तो सम तो प्रसाद दुख दारिद गयो,
कुलमण्डन
बहुत सराहत होय बार खरचें खावें सुख व्योहरें,
पुरुष नहीं संसार । बालक तू जयो ॥
सबमिल करें कुंवर की ख्वार । पार्श्वनाथ जप हिय में धरे ॥