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व्रत कथा कोष
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ऐसी विधि मास इक गयो, तब जिन तनों भवन संठयो। भले भले कारोगर लाय, चौड़ी नींव दयी भरवाय ।। फटिकजड़ित उतुङ्ग प्रावास, स्वर्गपुरी सम इन्द्रनिवास । कनक-खम्भ लागे चौकोर, कियो चतेरन बहुत चतेर । पाड़ो सिर रत्ननको दियो, ताकी जोति भानु लोपियो । सात पौर राखी इक सार, सोने सांकर जड़े किवार ।। रहे कंगूरे ऐसी भांत, देखत जिनके भूख बुझात । वेदोमध्य बनी चौखूट, अवर छत्र जो अधिक अनूप । छज्जे प्रब राखे इक सार, मोती झालर बन्दन बार । ध्वजा पताका उड़े उतङ्ग, धौरागिरि पर्वत के रंग ॥ सात दिवस में पूरी सोय, सुर नर देख अचम्भो होय । पुनि चौबीसो बिम्ब कराय, भई प्रतिष्ठा लागे पांय ॥ देश देश के श्रावक लोग, चल पाये वन्दन जिन योग । जिनको सुभग रची ज्योनार, वस्तु कहां लों वरनों सार । संघ पूजि कर दोनो दान, घर घर सम दे राखो मान । चुगल एक राजा पै गयो, कान लागि ऐसी कहि गयो । सुनो गुसांई प्रखराचार, तुमरे नगर तनो व्योहार । पेट भरन जे मानव प्रांय, यों बैभव तिन कैसे पाय ।। जाति बानियों सुनह नरिन्द, खरचौ धन यश भौ तिहखंड । इतनी बात सुनो जब राय, कोतवाल तब लियो बुलाय । जाहु वोर जिन देर लगाहु, परदेशी कों वेगि लिग्राहु । ले प्रायसु सो पहुँचो तहां, मतिसागर के सुत थे जहां ॥ तिहिसों बात कही समुझाय, वेगें चलो बुलावें राय । तासु वचन सुनि ठाढ़े भये, सातों वीर नपति पै गये । कारन जान सके ना भेव, मन में जपत चले जिनदेव । जब बालक देखे भूपाल, मन प्रानन्द भयो तिहिकाल ।