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व्रत कथा कोष
चंचल होती है इसलिये आप उनसे दूर रहें उनको माता व पुत्री समान देखना। शीलव्रत का पालन करना, इतनी ही इस दासी की विनती है।
फिर वह जिन मन्दिर के दर्शन कर ५०० शूर सिपाही को लेकर हंस द्वीप को गया । व्यापार के लिए योग्य स्थान देखकर उसने व्यापार शुरू किया।
इधर मनोरमा अपने १६ शृगार सहित जिन मन्दिर में गयी। रास्ते में राजकुमार की दृष्टि उसके ऊपर गयी, वह उसके रूप को देखकर पागल हो गया। यह सुन्दरी मुझे कैसे मिलेगी ? ऐसी उसको चिन्ता हुई । अतः उसने घर आकर चतुर दासी को उसके पास भेजा।
दासी ने मनोरमा को नाना प्रकार के भाषण से उसका मन चलायमान करना चाहा। पर मनोरमा का मन थोड़ा भी चलायमान नहीं हुआ और उलटा दासी को चाबुक से मार कर भगा दिया।
दासी राजमहल में गयी, सब समाचार राजकुमार को बता दिया। उसने कहा यह बात मेरे वश की नहीं है । और मुझे मार भी खानी पड़ती है इसलिए यह काम में नहीं कर सकती हूं।
पर दासी को मनोरमा का बर्ताव अपमानजनक लगा। अपमान की सुई उसे लगी। तब उसने उसका बदला लेना चाहा। इसलिए वह मनोरमा की सास को कुछ कुछ भिड़ाने लगी। जिससे उसकी सास के मन में शंका उत्पन्न हो । वह कहने लगी पति नहीं है तो भी यह इतनी सज-धज के क्यों जाती है । अब उसको पूरा संशय होने लगा और दासी उसमें तेल डालने लगी। अब उसमें आग लगने की देर क्या थी। सास ने दासी की बात मान ली । मनोरमा को बुलाया उसे कहा तुम अब इतनी सज करके क्यों जाती हो और उसने श्रेष्ठी से नमक मिर्ची लगाकर कहा मनोरमा को घर से बाहर निकालना चाहिए । तब ससुर ने रथ सजाकर मनोरमा को लाने हेतु सारथी को कहा और सब बात समझा दी। सारथी मनोरमा को लेकर जंगल में गया। मनोरमा से कहा बहन तुम इधर रुको मुझे यहीं छोड़ने के लिए कहा है आपके ऊपर चारित्र भ्रष्ट होने का आरोप लगाया है। पूर्व कर्म उदय में आए हैं उसे भोगे बिना छुटकारा नहीं। अब आप यहीं उतरें और मुझे छुट्टी दें।