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व्रत कथा कोष
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देहु दात्र मत लावहु बार, के डस देव करो मुहि छार । अब जो दात्र छोड़ घर जाहुं, तो हों उत्तर कहां कराहुं । विसमौ साहु तने घर होय, बेंचो दात्र कहे सब कोय । जब दिन बुरे परत हैं प्राय, गुरण करते अवगुण हो जाय । नशै बुद्धि होवे तन छीन, कहिवे पुरीपुरुष धनहीन ॥ धनबिन सेवक सेव न करे, धनबिन पुरुष नारि परिहरे। धनबिन मान महत क्यों होय, महा कुपूत कहे सब कोय ।। धनबिन परघर काम कराय, धनबिन भोजन रूखे खाय । धनबिन चिन्ता द्युति हर लेय, धनबिन दान न शोभा देय ।। धनबिन पायन चले नरेश, धनबिन नर भटके परदेश । धनबिन धरणि न लागे पाय, धनबिन बन्धु न करे सहाय ॥ धनबिन जीवन विफल कहाय, धनबिन काढि परायो खाय । धनबिन बात न पूछे कोय, धनबिन एको काज न होय ।। जान्यो कुवर खरो दख भरो, शेषराय को प्रासन टरो। पद्मावति सों को बुलाय, बालक को दुःख भंजो जाय ।। वाको पिता पूज नित करे, पार्श्वनाथ स्वामी मन धरे । अब याको तुम होहु सहाइ, निधि देवो बालकहिं बुलाय ॥ पद्मावति मन हषित भई, देव पंच कल्याणक ठई । पंच पदारथ मोतिन हार, स्वर्णदात्र सोने को थार ।। निधि ले पनि वह पहुंची तहां, वन में कुंवर अकेलो जहां । बैठो देख बुला जो लियो, दोनी निधि बहु प्रानन्द कियो । विलसहु वत्स शङ्क निजहरो, पार्श्वनाथ स्वामी मन धरो। जब रवि दिवस परे शुभप्राय, ध्यावहुपार्श्व चित्त विलसाय ॥ अपने मन मत धारो शंक, लेहु कुंवर घर जाहु निशंक । जा प्रसाद भाजे सन्देह, ता प्रसाद फल पायो येह ।।