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व्रत कथा कोष
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तब देवों ने लोकपाल को उठाकर रानी को दिया और उनकी पूजा की और रानी के पुण्य की कथा कहने लगे।
गांव के बाहर अशोक वन था वहां प्रतिभूति, महाभूति, अंबरविभूति और अंबरतिलक ऐसे चार विशाल जिनमन्दिर थे । वहाँ पर हस्तिनापुर से विहार करते हुये दो चारण मुनि रूपकुम्भ व वर्णकुम्भ महाभूति मन्दिर में उतरे (आये)। यह बात वनपाल ने पाकर राजा को बताई । तब राजा रानी और नगरवासियों सहित वंदन को गया। वहां वन्दना कर महाराज से पूछा कि रोहिणी ने ऐसा क्या पुण्य किया है कि जिससे उसको दुःख का अनुभव नहीं होता व मेरे पाठ पुत्र व आठ पुत्री का क्या सम्बन्ध है, सो कहें।
तब मुनिराज बोले
"राजन ! हस्तिनापुर से १२ कोस दूर पर एक नीलगिरि पर्वत है । उस पर्वत पर यशोधर चारण मुनि तपश्चरण करते थे । उन्होंने एक मास का उपवास लिया था। एक दिन एक शिकारी शिकार करता-करता वहाँ आया पर मुनिमहाराज के महात्म्य से मृग पर छोड़े गये सब बाण निष्फल हुये, ऐसा क्यों हुआ ऐसा सोचता हुआ कारण ढूढ़ने के लिये वह आगे निकला तो वहाँ पर महाराज को बैठे हुए देखा तो उसे ज्ञात हुआ इसी कारण से ऐसा हुआ है और उसे गुस्सा आया तो जब महाराज महिना पूरा होने पर पारणा के दिन आहार को नगर में गये तब पीछे से शिला के नीचे प्राग लगाकर शिला गर्म कर दी। फिर वह दूसरी ओर निकल गया।
आहार के बाद महाराज वापस आये, नित्यक्रम के अनुसार उस शिला पर जाकर बैठ गये, पर शिला भयंकर तपी हुई थी। तब उन्होंने सोचा यह उपसर्ग है, ऐसा सोचकर वे उठे नहीं और बैठे हुए ही ध्यान में लीन हो गये, तब थोड़े समय में उनको केवलज्ञान हो गया।
पर उस मृग मारने वाले को पाप के कारण उदुम्बर रोग हो गया जिससे वह सात दिन के अन्दर मृत्यु को प्राप्त हुआ । मरकर वह सातवें नरक में उत्पन्न हुआ। वहां से अनेक भव धरता हुमा मनुष्य हुआ । उसका नाम वृषभसेन रखा, बड़ा होने पर