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व्रत कथा कोष
दिवसे तरिमन्नेव हि चतुष्टयोपलम्भात् । ते के इसि चेदाह-निर्वाण कातिकोत्सव मालोत्सव धूपोत्सव यात्रोत्सव वस्तूत्सवाः । चतुष्टयं किमिति चेदाह-द्रव्य काल क्षेत्र भावारव्यमिति श्रत सागरैः प्रोक्तं, अन्ये रपि चोक्तं तद्यथा--
प्रादि मध्यावसानेषु हीयते तिथिरूत्तमा । प्रादौ व्रत विधिः कार्यः प्रोक्तं श्रीमुनिपुङगवैः ॥ प्रादि मध्यान्त भेदेषु व्रत विधिविधीयते ।
तिथि हासे तदुक्तञ्च गौतमादिगणेश्वरैः ।। अर्थ :- अन्य प्राचार्यों ने भी कहा है कि रोहिणी नक्षत्र का प्रमाण दशलक्षण, रत्नत्रय, षोडशकारण व्रत के समान छः घटी प्रमाण ग्रहण करना चाहिए । देवनन्दि प्राचार्य ने और भी कहा कि दिन हानि होने पर-रोहिणी नक्षत्र का प्रभाव होने पर उसी दिन व्रत, नियम करना चाहिए, क्योंकि पूर्वाचार्यों के वचनों में व्रत तिथि का निर्णय करते समय चतुष्टय शब्द की उपलब्धि होती है । निर्वाण, द्वीपमालिका उत्सव, धूपोत्सव, यात्रोत्सव, वस्तु-उत्सव आदि व्रतों के निर्णय में भी प्राचार्य ने चतुष्टय शब्द का व्यवहार किया है। श्रुतसागर प्राचार्य ने चतुष्टय शब्द का अर्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव लिया है, अन्य प्राचार्यों ने भी व्रत व्यवस्था के लिए कहा है
यदि व्रत के दिनों में आदि, मध्य और अन्त के दिनों में कोई तिथि घट जाय, तो एक दिन पहले व्रत करना चाहिए । ऐसा श्रेष्ठ मुनियों ने कहा है । तिथि ह्रास होने पर आदि, मध्य, और अन्त भेदों में व्रत विधि की जाती है अर्थात् तिथिह्रास होने पर एक दिन पहले व्रत किया जाता है । इस प्रकार गौतम आदि श्रेष्ठ प्राचार्यों ने कहा है।
विवेचन :- रोहिणी व्रत के दिन रोहिणी नक्षत्र छः घटी प्रमाण से मल्प हो तो भी देश, काल आदि के भेद से प्राचार्यों ने व्रत करने का विधान किया है, अतः रोहिणी-व्रत करना चाहिए । रोहिणी व्रत के लिए एक-दो घटी प्रमाण नक्षत्र को भी उदयकाल में ग्रहण किया गया है । कुछ प्राचार्यों का यह मत है कि रोहिणी नक्षत्र को क्षीण होने पर भी व्रत उसी दिन करना है अर्थात् कृत्तिकाके उपरान्त और मृग