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व्रत कथा कोष
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दोहा तब मन्त्री बोले सबै, इन दर्शन नहि जोग । नगिन फिरे ये जगत मे, ये दरसनिया लोग ॥३७।। बन बन फिरत भयावने, घिन लागै तेहि देखि ।
ते कैसे करि बन्दिये, बाहिर भेष निषेक ॥३८॥ ॥अडिल्ल॥ ये सुनो के तो राय, कहो हम जाई है।
ऐसे मुनि के दरस परस कब पाइ है ॥ तुम मति प्रावऊ जाऊ जो तुमहि गिलानि है। परि ताको फल होइ जो जैसो मानि है ॥३६॥ यह कहि नृप उठि चले मनहि प्रानन्द भरे । मन्त्री लागे संघ कछुक यक जिय मे डरे । राजा संघ न जाहिं तो मन रिस मान ही।
अरि जानौ कह करै कहा मन प्रान ही ॥४०॥ ॥सोरठा।। ऐसी मनहि विचार सब राजा के संघ गये ।
देख्यो बनहिं मंझार ध्यानारूढ सबै तहां ॥४१॥ बन्दे राजा जाय गद्य पद्य स्तुति करि । मन वच क्रम सिर नाय बिगत २ इक पांति सो ॥४२।।
चौपाई बिगत-२ वन्दे सब राय, कोई न तिन में बोलो जाय । मौन व्रत सब हिन मिल लियो आशिरवाद न कोई दियो ॥४३॥ अपने ध्यान सवे प्रारूढ, निस्प्रेही मुनि परम अगूढ । घरी येक दुइ ठाढे रहे, उन मह कोई कछुक नहीं कहे ।।४४॥ तब राजा समुझो मन माहि, ध्यानारूढ सभी मुनि प्राहि ।। फिर बन्दन करि घर को चले, संघ लोग सब मिलिकरि भले ॥४५।।