________________
५०४ ]
व्रत कथा कोष
सब हिन को काहे को हने, आपस मे चारो मन्त्री भने । तब बलि कही नीति है येह, प्रापहि हने मारिये तेह ।।८६॥ मनि को बहुरि कहा उन कियो, काठो खडग हाथ में लियौ। चारो जने जो एकही बार, कर ले ले दौरे तलवार ॥६॥ तब मनि तप महातम घनो, आसन कम्पयो सुर वन तनो। ते दौरि करि थम ते मये, चारो ज्यो के त्यो रही गये ॥११॥ हाथ पांव कीलत सब करे, अंग अंग मन सकल जरे । इत उत डोल न भाग्यौ जाय, पाथर से गठि राखे ताहि ॥१२॥ प्रात भये तब देखे कहां, चारो मन्त्री कीले महा । काहू जाय राय से कही, देखौ चरित्र मंत्रिन के सही ॥६३।। सनि के राजा दौरे प्राय, वन्दे श्रुतसागर के पाय । देखो समाचार सब एह, चारो मन्त्री कीले तेह ।।४।। तब भुपति तिन सो इम कही, अपनी कियो पाईयो सही । बिन अपराध कहां बैर धरे, ते नर नरक कुण्ड मे परे ॥६५॥ छोटे जन्तु जौ मारहि लोग, तिनको मुख नहि देखन जोग । ये त्रिभुवन के पूज्य महन्त, तिनको मारन चाहत संत ।।१६।। बहु अपराध कियो इन प्राप, चन्डालन को लियो बुलाय । इनको सुला रोपण करो, इनको मस्तक छेदन करो ।।७।। इतनी सुनि मुनि बोले जाय, जीव दया तुम पालौ राय। अपनो कियो पाई है प्राप, तुम काहे को लेहो पाप ।।६।। राज निति जो बहुत करेहूं, इनको दण्ड और कछु देह । तब नप मुनि चरणनि को नये, चारो बांध घरै ले गये ।।६६ चारो को सिर मुन्डन कियो, तापर नीको पछनो दियो, । तवा पोछ मुख स्याहि लमाय खर बाहन पर तिनको बैठाय ॥१००।।