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व्रत कथा काष
आदि करे, बारह व्रतों का पालन करे, इस प्रकार एक वर्ष तक इस व्रत को पाले, अंत में उद्यापन करे, पंचपकवान चढ़ावे, महाभिषेक पूजा करके चारों संघों को चार प्रकार का दान देवे ।
कथा
कुरुजांगल देश में कनकपुर नाम का नगर है, उस नगर में विजय कीर्ति नामक राजा अपनी रानी विनयवती के साथ राज्यसुख भोगता था, उसी नगर में जिनदत्त राजश्रेष्ठि अपनी सेठानी रत्नमाला के साथ में रहता था, उसकी कन्या का नाम वनमाला था, एक दिन वनमाला अभयवती आर्थिका के पास जाकर माघमाला व्रत को ग्रहण कर व्रत का पालन करती हुई धर्मध्यान से समय बिता रही थी ।
सिन्धुदेश में रत्नपुर नाम का नगर है, उस नगर का राजा जितशत्रु अपनी रानी कमलावती के साथ राज्य करता था, उस राजा का राजश्रेष्ठि विनयदत्त और उसकी सेठानी सुभद्रा थी, उस सेठ के सुशर्मा नाम का कुरूप एक पुत्र था, पुत्र की शादी हो ऐसा उद्देश्य लेकर दूसरे गांव की ओर चले, और कनकपुर नगर के उद्यान में आकर उतरे ।
उसी समय अवंती देश के सुसीमा नगरी में वसुपाल नामक राजा निपुणमति रानी के साथ में राज्य करता था, उसके राज्य में मन्त्री अभिचन्द्र अपनी पत्नी कुसुमलेखा के साथ रहता था, एक दिन राज्यश्रेष्ठि जिनदत्त व्यापार के लिये रत्न द्वीप गया, वापस आते समय सुवर्ण पात्र में रखकर रत्नभूषण प्रादि राजा को भेंट किया, और आदर से नमस्कार करके सामने खड़ा हो गया ।
राजा ने बैठने के लिये अपने पुत्र का सिंहासन दिया, तब सेठ को आश्चर्य हुआ और कहने लगा कि राजन मैं इस सिंहासन पर बैठने योग्य नहीं हूं, क्योंकि मेरे पुत्र नहीं है, तब राजा ने दूसरे सिंहासन पर बैठने को कहा वो उसके ऊपर बैठकर कुशलवार्ता पूछने लगा, राजा ने उसका अच्छी तरह से आदर सत्कार करके उसके गांव को भेज दिया, उस प्रसंग में सारा वृतान्त राजा के प्रधान को मालुम पड़ने से गहरा धक्का मन में बैठ गया, अन्य लोगों को भी आश्चर्य हुआ, और मन में