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व्रत कथा कोष
तीर्थंकर रहते हैं वहां १०० योजन तक सुभिक्षता रहती है, इसलिये सर्व पशुपक्षी परस्पर वैर भाव छोड़कर प्रेम से खेलते रहते हैं।
ऐसा सुनकर युवराज को बहुत--प्रानन्द प्राया, तब वह कुमार मुनिराज को नमस्कार करके बड़ी उत्सुकता से सर्व लोगों के साथ अपने नगर में वापस आया। दूसरे दिन अपने माता-पिता की प्राज्ञा लेकर बड़े उत्साह से श्री वासुपूज्य तीर्थंकर का दर्शन करने को हाथी पर बैठकर निकल गया। उस समय उसके मनोबल की परीक्षा करने के लिये, धन पूज्य और विश्वानुलोम नाम के दोनों देवों ने प्राकर नगर के परकोटे का और द्वार का ध्वंस कर दिया, यह देखकर मन्त्री वर्ग ने राजपुत्र को कहा कि हे स्वामिन बहुत बड़ा अपशकुन हो रहा है, आप कहां जा रहे हो रुको।
ऐसा सुनकर और देखकर भी भयभीत नहीं होता हुआ अपशकुनों की परवाह नहीं करता हुआ, युवराज 'ॐ नमो भगवते वासुपूज्याय नमः' ऐसा उच्चारण करके आगे बढ़ा, फिर उन दोनों देवों ने आगे जाकर युवराज का मार्ग रोकने के लिये सर्प के विषमिश्रित रक्त को रास्ते में भर दिया, तो भी युवराज 'ॐ नमो भगवते वासुपूज्य नमः' कहता हुआ हाथी को वहां से आगे बढ़ा दिया, तब देव उस राजकुमार की दृढ़भक्ति को देखकर कुमार के सामने प्रत्यक्ष हुये, और क्षमा मांगने लगे, कहने लगे कि हमने आपका बड़ा अपराध किया है, आपकी भक्ति में प्रतिबन्धक हुये हम लोग, ऐसा कहकर दोनों देवों ने राजकुमार की पूजा किया, और कहने लगे कि हे कुमार आपका यह प्रयाण सुखकर हो, ऐसा कहकर चले गये । फिर वह राजकुमार आतुरता से प्रागे चला, दूर से समवशरण को देखकर हाथो से नीचे उतरा अपने दोनों हाथों को जोड़ता हुअा, समवशरण के द्वार पर जा पंहुचा, श्री वासुपूज्य नमः कहता हुआ समवशरण में प्रवेश किया, गंधकुटी की तीन प्रदक्षिणा देकर तीर्थंकर को साष्टांग नमस्कार किया। फिर अष्टद्रव्य से भगवान की पूजा स्तुति करके मनुष्य के कोठे में जाकर बैठ गया।
भगवान का धर्मोपदेश सुनकर हाथ जोड़कर सुधर्म गणधर को कहने लगा, हे भवसागरोद्धारक दयानिधि स्वामिन ! आज आप भवावली कहो, गणधर स्वामी कहने लगे हे कुमार तुम प्रथम भव में कामसेन पुरोहित की लड़की थे, दूसरे