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व्रत कथा कोष
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कभी वर्ष में एक मास की हानि हो जाती है । स्पष्ट मान में जिस समय चान्द्रमास के प्रमाण से सौरमास का मान कम होता है, तब एक चान्द्रमास में दो संक्रान्तियों के सम्भव होने से क्षयमास होता है। वह सौरमास अल्प, तभी संभव है जब स्पष्ट रवि की गति अधिक हो । क्योंकि अधिक गति होने पर थोड़े सयम में राशिभोग होता है । क्षयमास प्रायः कार्तिक, मार्गशीर्ष और पौष में ही होता है । क्षयमास जिस वर्ष में होता हैं, उस वर्ष में अधिकमास भी होता है । मान लिया कि भाद्रपद अधिकमास है, उस समय अधिशेष बहुत कम रहता है और क्रमशः घटता भी है, क्योंकि सूर्य अपने नीच के अासन्न है । अधिशेष जब घटते घटते शून्य हो जाता है, तब क्षयमास होता है । कारण स्पष्ट है कि चान्द्रमास से रविवास कम होता है। क्षयमास के अनन्तर अधिकमास शेष एक चान्द्र मास के अासन्न पहुच जाता है । इसके पश्चात् जब सूर्य पुनः अपने उच्च के आसन्न पहुंच जाता है। तब सौरमास के अल्प होने के कारण पुनः अधिकमास हो जाता है । इस प्रकार क्षयमास होने पर दो अधिकमास होते हैं । यदि पहला अधिकमास भाद्रपद को मान लिया जाय तो दूसरा अधिकमास चैत्र में पड़ेगा। तथा अगहन में क्षयमास होगा । क्षयमास १४१ वर्ष के अनन्तर आता है । पिछला क्षयमास वि. सं. १६३६ में पड़ा था अब अगला वि. सं. २०२० में कार्तिक में पड़ेगा। कभी-कभी क्षयमास १६ वर्षों के बाद भी पड़ता है । यदि समय पर क्षयसास पड़ा तो ४३३ वर्षों के पश्चात् भी आता है।
यह नियम है कि जिस वर्ष क्षयमास पड़ेगा, उस वर्ष दो अधिकमास अवश्य होंगे। क्षयमास पड़ने पर व्रत पिछले महीने से किया जाता है। मान लिया कि कातिक क्षयमास है । एकावली व्रत करने वाले को कार्तिक के व्रत आश्विन में ही कर लेने होंगे अथवा नक्षत्र प्रादि व्रत जो मासिक व्रत हैं, वे कार्तिक का अभाव होने पर आश्विन में किये जाएंगे। यह पहले ही लिखा जा चुका है कि जिस वर्ष क्षयमास होता है, उस वर्ष अधिकमास पहले अवश्य पड़ता है और यह अधिकमास भी नीचासन्न सूर्य के होने पर अर्थात् भाद्रपद या आश्विन में आएगा । इस प्रकार एक महिने के बढ़ जाने से तथा एक महिना घट जाने से कोई विशेष गड़बड़ी नहीं होती है । व्रत के लिए बारह मास प्राप्त हो जाते हैं । परन्तु विचारणीय बात यह है कि अधिकमास पड़ने पर भी व्रत के लिए तो एक ही मास ग्राह्य है। दूसरा मास तो मलमास होने