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व्रत कथा कोष
ग्रहण करेंगे । उद्यापन भी करेंगे । अन्त में बलभद्र व्रत के प्रभाव से स्वर्ग में जायेंगे । नारायण भी परिणामों के अनुसार कहीं जाकर उत्पन्न होंगे। इसी प्रकार से वृषभसेन गणधर के मुख से भावी कथा सुनकर चक्रवर्ती व अन्य लोगों को बहुत ही
आनन्द प्राया, तब चक्रवर्ती ने गणधर को नमस्कार करके हर्षपूर्वक अनन्त व्रत को स्वीकार किया, भक्तिभाव से नमस्कार करके वापस अयोध्या को आये । नगर में आकर कालानुसार व्रत को पालन करने लगे।
___ व्रत समाप्त होने के बाद व्रत का उद्यापन किया, दान देने का समय जब आया तब चक्रवर्ती के मन में एक विचार उत्पन्न हुआ-हमने जो भरतक्षेत्र में दिग्विजय करके जो धन उपार्जन किया है उसका सदउपयोग होना चाहिए इसलिए दान लेने योग्य व्रतिकों की स्थापना करनी चाहिए । ऐसा विचारकर राजाङ्गण में अंकुरोत्पत्ति करवा दी, और देश देशान्तर से लोगों को बुलाकर राजदरबार में आने की आज्ञा की तब आये हुए लोगों में जो व्रतिक थे उन लोगों ने अन्दर आने की मनाई कर दी, और जो असंयमी थे वे लोग अंकुरों के ऊपर पांव रखकर अन्दर आ गये ।
जो लोग अंकूरों के ऊपर पांव रखकर अन्दर नहीं पाये, उनसे पूछा गया कि आप अन्दर क्यों नहीं आ रहे हो, तब उन लोगों ने कहा कि हम संयमी हैं अंकुरों के ऊपर पाँव नहीं रखते हैं, सचित्त पदार्थ के ऊपर पाँव रखने से एकेन्द्रिय जीवघात होता है ऐसा आदिप्रभू ने कहा है, इसलिए हम लोग जीवघात नहीं करेंगे । यह देखकर भरत चक्रवर्ती को बहुत आनन्द हुआ । भरत चक्रवर्ती ने कहा कि आप लोग आज से ब्राह्मण संज्ञावाले कहलाएगे, आप लोग कृषिकर्म न करते हुए, मात्र अध्ययन और अध्यापन (पढ़ना और पढ़ाना) का कार्य करेंगे, धार्मिक क्रियाकांड करवाना ही आप लोगों का कार्य रहेगा ऐसा कहकर उनको योग्य सम्मान देकर घर भेज दिया।
आगे भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी के दिन भरत चक्रवर्ती ने अपने अनन्त व्रत के उद्यापन में स्वयं के द्वारा स्थापित ब्राह्मणों को बुलाकर उनका यक्षोपवीत संस्कार किया, वायने देकर सुवर्ण रत्नादिक का दान दिया, पूर्णिमा के दिन जिनपूजादि