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व्रत कथा कोष
दो एकाशन करे इस प्रकार इस व्रत को पूर्ण करना चाहिए। इस व्रत में णमोकार मन्त्र का जाप या पूर्वोक्त बृहद् द्विकावली मन्त्र का जाप करना चाहिए ।
द्विकावली व्रत विधिद्विकावल्यां द्विकान्तरेणकाशनोपवासाः, चतुःपञ्चाशत् कार्याः, न तिथ्यादिनियमः । मतान्तरेण द्विकावल्या प्रत्येक कृष्णपक्षे चतुर्थी-पञ्चम्योः, अष्टमी-नवम्योः । चतुर्दश्यमावस्ययोः उपवासाः कार्याः । शुक्लपक्षे तु प्रतिपदा-द्वितीययोः, पञ्चमीषष्ठयोः अष्टमी-नवम्योः, चतुर्दशी-पूणिमयोः उपवासाः कार्याः । एवं प्रकारेण चतुरशीतिः पारणादिवसानि भवन्ति ।।
[विधि दुकावली बरतकी श्री जिन भाषी ताम । वेला सात जु मास में करिए सुरिण तिय नाम ।। पषि श्वेत थकी व्रत लीजै, पडिवा दोयज वृद्धि कीजै । फुनि पांच षष्ठी जारणों, आठ नवमी छट्ठि ठाणौ ।। चौदसि पन्यु गिरण लेह, बेला चहु परिवसि तइएह । तिथि चौथी पांचमी कारी, पाठ नौमी सुविचारी ।। चौदसि मावसि परवीन, पषि किसन करै छठ तीन । इम सात मास एक माही, बारामासहि इक ठांही। चौरासी वेला कीजै, उद्यापन करि छांडीजे । इस व्रत ते सुरसिव पावै, सुख को तहां वार न पावै ।।
___क्रियाकोश किसन संघ अर्थ :-द्विकावली व्रत में दो उपवास के अनन्तर पारणा की जाती हैं । इसमें कुल ५४ उपवास होते हैं और ५४ दिन ही पारणा करनी पड़ती हैं । इसमें तिथि आदि का कोई नियम नहीं है । मतान्तर से द्विकावली व्रत के प्रत्येक महीने के कृष्णपक्ष में चतुर्थी-पञ्चमी, अष्टमी-नवमी, चतुर्दशी-अमावस्या और शुक्लपक्ष में प्रतिपदा-द्वितीया, पञ्चमी-षष्ठी, अष्टमी-नवमी और चतुर्दशी-पूर्णिमा का उपवास करना चाहिए । इस प्रकार प्रत्येक महीने में ७ उपवास तथा ७ एकाशन करना चाहिए । वर्ष में इस प्रकार ८४ उपवास और ८४ पारणाए होती हैं।