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व्रत कथा कोष
जाप :- ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं श्रीं वृषभादिचतुविंशति तीर्थंकरेभ्यो यक्षयक्षी सहितेभ्यो नमः स्वाहा ।
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इस मन्त्र का १०८ बार जाप करे । णमोकार मन्त्र का जाप करें। यह कथा पढ़े फिर जयमाला कर महार्घ्य दे, भारती करे, उपवास करे ।
इस प्रकार १६ वर्ष पूर्ण होने पर उद्यापन करे । उस समय चतुर्विंशति तीर्थंकराराधना करके महाभिषेक करे ।
कथा
इस जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र है उसमें सोरठ देश (सौराष्ट्र ) है उसमें द्वारका नामक एक नगर है । वहां कृष्ण नामक नारायण राज्य करता था। उसकी पट्टरानी सत्यभामा थी । पर सत्यमामा का अपमान कराने के लिये मारद ने रुकमणी का विवाह कृष्ण से करवा दिया। एक बार वह नेमिनाथ तीर्थंकर के समवशरण में सपरिवार गया। भगवान की प्रदक्षिणा, वन्दना, पूजा-स्तुति करने के बाद समवशरण में मनुष्य के कोठे में बैठ गये । धर्मोपदेश सुनने के बाद कृष्ण मे रुकमणी का भवान्तर पूछा । तब भगवान ने कहा कि मगध देश में राजगृह नामक मगर है । वहाँ पहले लक्ष्मीमति ब्राह्मणी रहती थी । एक दिन मुनि चर्या के निमित्त नगर में आये । वे अत्यन्त क्षीण शरीरी थे । उनको देखकर लक्ष्मीमति ने बहुत निंदा की और दुर्वचन बोलकर उनके शरीर पर थूक दिया । इस दुष्कृति से उसकी तिर्यंचायु का बंध हुआ भौर कुष्ठ रोग हो गया । आयुष्य पूर्ण होने पर मरकर भैंस हुई। वहां से मर कर डुकरी हुई फिर कुत्ती हुई, फिर धीवरी हुई, वहां मछलियां मारकर उसे खाने लगी ।
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एक दिन एक वृक्ष के नीचे एक मुनिमहाराज बैठे थे । उस समय वह कुरूप दुष्ट पापी धीवरणी जाल लेकर वहां प्राथी । जाल रखकर वह वहां बैठी तब महाराज के मन में दया मायी वह उससे बोले है कन्या ! तू पूर्व के पाप से ऐसे दुःख कष्टों को भोग रही है और अब भी ऐसे ही पाप कर रही है जिससे अब भी दुर्गति में जायगी । ऐसा कह कर उसके पूर्व भव कहे । यह सुन उसे मूर्च्छा आ गयी । फिर सावधान होकर वह बोली इस पाप से छुटने के लिये कोई उपाय हो