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व्रत कथा कोष
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विवेचन :- द्विकावली व्रत की विधि के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं । पहला मत इस व्रत के लिए तिथि का कोई बन्धन नहीं मानता है । इसमें कभी भी दो दिन उपवास कर पारणा करनी चाहिये । इस प्रकार ५४ उपवास और ५४ पारणाएं करके व्रत को समाप्त करना चाहिए । ५४ उपवास १६२ दिन में सम्पन्न किये जाते हैं । उपवास करने वाला प्रथम दो दिन उपवास एक दिन पारणा, पुनः दो दिन उपवास, एक दिन पारणा, इसी प्रकार आगे भी करता जाता है । इस प्रकार एक उपवास के सम्पन्न करने में तीन दिन लगते हैं । अतः ५४ उपवास के ५४४ ३= १६२ दिन हुए । उपवास के दिनों में शील व्रत का पालन करते हुए तीनों समय प्रतिदिन - प्रातः, मध्यान्ह और सायंकाल “ॐ ह्रां ह्रीं जिनेन्द्राय सर्वशान्तिकराय सर्वक्षुद्रोपद्रव विनाशनाय श्रीं जाप करना चाहिए । यह मन्त्र तीनों सन्ध्याकालों में कम जाता है ।
ह्रीं ह्रौं ह्रः श्रीपार्श्वनाथ
2
स्वाहा " मन्त्र का
१०८ बार जपा
क्लीं नमः से कम
उपवास और पारणा के लिये किसी तिथि का नियम नहीं है । फिर भी यह व्रत श्रावण मास से प्रारम्भ किया जाता है । यह माघ मास की द्वादशी तक किया जाता है । कुछ लोग इसे वर्ष भर करने की सम्मति देते हैं, उनका कहना है कि श्रावण मास से आरम्भ कर दो दिन उपवास, एक दिन पारणा इस क्रम से वर्षान्त तक व्रत करते रहना चाहिये ।
द्विकावली व्रत की विधि के सम्बन्ध में दूसरी मान्यता यह है कि इस व्रत में प्रत्येक मास में सात उपवास किये जाते हैं, ये सात उपवास २१ दिन में सम्पन्न होते हैं । दो दिन व्रत रखने के उपरान्त पारणा करनी पड़ती है, इस प्रकार २१ दिन में सात उपवास करने के पश्चात् महीने के शेष दिनों में एकाशन करना चाहिए । प्रथम उपवास कृष्ण पक्ष में चतुर्थी पञ्चमीका किया जायगा । षष्ठी को पारणा की जायगी, सप्तमी को एकाशन करने के उपरान्त अष्टमी और नवमी को व्रत किया जायगा । इस व्रत की दशमी को पारणा होगी, पुनः एकाशदशी, द्वादशी और त्रयोदशी को एकाशन करना होगा । चतुर्दशी और अमावस्या को उपवास करना होगा । पुनः शुक्लपक्ष में प्रतिपदा और द्वितीया का उपवास करना होगा । इस