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व्रत कथा कोष
'ॐ ह्रां ह्रीं ह्र. ह्रौं अहं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यो नमः
स्वाहा ।"
इस मन्त्र का जाप १०८ बार करे । और णमोकार मन्त्र का जाप १८० बार करे । धर्मध्यानपूर्वक अपना समय बितावे । दूसरे दिन सत्पात्र को दान देकर पारणा करे।
इस प्रकार यह व्रत ५ शुक्रवार करके अन्त में कार्तिक अष्टान्हिका में उद्यापन करे । उस समय पंचपरमेष्ठी विधान करके महाभिषेक करे। आहारदान वस्त्रदान आदि करे।
कथा देवील नामक नगरी थी वहां का राजा देवसेन अपनी स्त्री देवकी के साथ राज्य करता था। उसका देवकुमार पुत्र व स्त्री देवमती थी। मन्त्री देवाकर, मन्त्री की देवसुन्दरी स्त्री थी। उसके देवकीति नामक पुरोहित व देवकांती नामक स्त्री थी। देवदत्त नामक राजश्रेष्ठी और उसकी स्त्री देवदत्ता थी। राजा इनके साथ सुखपूर्वक रहता था।
एक दिन उद्यान में देवसागर निर्मल महामुनि अपने संघ सहित आये । राजा उनके दर्शन करने को गये। धर्मोपदेश सुनकर राजा ने कोई एक व्रत विधि बतायो इस प्रकार कहा । तब महाराज ने यह व्रत और उसकी विधि बतायी । राजा वन्दना कर घर आये । उन्होंने विधिपूर्वक यह व्रत किया जिससे वे इस व्रत के प्रभाव से स्वर्ग गये और अनुक्रम से मोक्ष सुख को प्राप्त किया ।
द्वारावलोकन व्रत द्वारावलोकनव्रते तु दिनयाममर्यादा कार्या, द्वौ यामौयावत् द्वारमवलोकयामि तावत् मुनिरागतश्चेत् तस्मै प्राहारं दत्वा पश्चादाहारं ग्रहीष्यामि । इति द्वारावलोकनव्रतम् ।
अर्थ :-द्वारावलोकन व्रत में दिन में दो प्रहरों का नियम करके द्वार पर खड़े होकर मुनिराज के आने की प्रतीक्षा करना, यदि इस बीच में मुनिराज पा जावे