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व्रत कथा कोष
रंगों के धागे से वेष्टित करे, अभिषेक की थाली में दशलक्षण यंत्र व चौबीस तीर्थं - कर की प्रतिमा यक्षयक्षि सहित स्थापन कर पंचामृताभिषेक करे, एक थाली में दस पान रखकर उपर अर्ध्य रखे, उस थाली को मध्य के कलश पर रखे, नित्यपूजा करके दशलक्षण व्रत विधान करे, व्रत कथा पढ़े, एक थाली में दस पान लगाकर ऊपर अर्घ्य रखे, एक नारियल रखे, थाली हाथ में लेकर मन्दिर की तीन प्रदक्षिणा लगावे, मंगल आरती उतारे, उपवासादि यथाशक्ति करे, ब्रह्मचर्यपूर्वक रहे । धर्मध्यान पूर्वक समय निकाले ।
इस क्रम से दस दिन पूजा क्रम करना चाहिए, और दस वर्ष तक करते रहना चाहिए । अन्त में उद्यापन करना चाहिए, उस समय दशलक्षणिक व्रत उद्यापन विधान करना चाहिए, एक नवीन चौबीस तीर्थंकर प्रतिमा यक्षयक्षि सहित लाकर गणधर पादुका व श्रुतस्कंध लाकर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करावे, नवीन जिन मन्दिर बांधे, पुराने मन्दिर का जीर्णोद्धार करावे । मन्दिर में आवश्यक उपकरण देवे, चतुर्विध संघ को आहारदानादि देवे, उनको श्रावश्यक उपकरण देवे, दस दम्पति जोड़ा को भोजन कराकर वस्त्रादि देवे, दस वायना बांधकर देवशास्त्र गुरु के सामने एकेक रखे, और नमस्कार करे, गृहस्थाचार्य व दम्पतियों को एकेक देवे ।
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कथा
धातकी खण्ड के मेरु पर्वत के दक्षिण भाग में सीतोदा नदी के तीर पर विशाल नगर है, उस नगर में प्रीयंकर नाम का धार्मिक राजा अपनी रानी प्रियंकरी के साथ रहता था, उसके मगांकलेखा नामक धर्मात्मा कन्या थी । राजा का मतिशेखर नाम का मन्त्रि था । उस मन्त्रि की पत्नी का नाम शशिप्रभा था । वह शीलगुण से सम्पन्न थी, उनकी कमलसेना नाम की सुन्दर कन्या थी, उसी नगर में गुणशेखर नाम का राजश्रेष्ठि अपनी शीलप्रभा सेठानी के साथ रहता था, उसके भी मदन रेखा नामक कन्या थी, और भी उस नगर में लक्षभट्ट नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी चन्द्रवदना के साथ रहता था, उसके भी रोहिणी नाम की कन्या थी । इन चारों ही कन्याओं ने गुरु के पास एक साथ अध्ययन किया था ।
एक दिन बसन्त ऋतु के अन्दर चारों ही कन्या नगर के उद्यान में घूमने