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व्रत कथा कोष
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श्रेष्ठी थे । प्रियदत्ता उनकी धर्मपत्नो थी । जो षट्कर्म का नियम से पालन किया करती थी ।
एक दिन विपुलमति नाम के चारण महामुनिराज चर्या के निमित्त से श्रेष्ठी के घर के सामने आये । तब श्रेष्ठी ने मुनि को पडगाहनकर निरन्तराय श्राहार दिया । कुछ देर उपदेश सुनने के बाद प्रियदत्ता सेठानी बोली- हे गुरुराज ! हमारे वंश में संतान की अभिवृद्धि कब होगी ? तब अवधिज्ञान से जानकर मौनवृत्ति से अपने दाहिने हाथ की पांच अंगुलियां व बायें हाथ की एक अंगुली उठाकर दिखाकर घर में सब को आशीर्वाद दिया और चले गये ।
बाद में कितने दिनों में दम्पति को क्रम से कुबेरदत्त, कुबेरप्रिय, कुबेर मित्र, कुबेर ऐसे पुत्र तथा कुबेरश्री नाम की कन्या हुई। इन सबके साथ सुकृतफल सांसारिक सुख भोगकर क्रम से स्वर्ग व मोक्ष सुख की प्राप्ति की । श्रथ चतुर्विंशति श्रोतृ व्रत कथा
व्रत विधि : - पहले
व्रत के अनुसार सर्व विधि करना । चैत्र शु. ४ को एकाशन तथा ५ को उपवास पूजा प्रादि करना ।
कथा
धातकी खण्ड में पूर्व मन्दर के अपरविदेह क्षेत्र में सीता नदी के किनारे गंधिल नाम का देश है । उसमें अयोध्या नामक राज्य है । उसमें अर्हद्दास राजा राज्य करता था । सुप्रति व जिनदत्ता नाम की दो रानियां थीं । सुप्रति के वीतमय तथा जिनदत्ता
विभीषण नाम के पुत्र हुए। इसके अतिरिक्त मनोहर मन्त्री, उसकी स्त्री मनोरमा, श्रुतकीर्ति पुरोहित, मनोदत्ता भार्या शूरसेन सेनापति, सुरदत्ता गृहिणी इस प्रकार पूर्ण परिवार था ।
एक दिन संजयंत नामक मुनिराज चर्या के निमित्त प्राये । राजा ने पडगाहन कर निरन्तराय आहार दिया । कुछ समय तक उनके मुख से उपदेश सुनकर राजा ने मुनि को नमस्कार कर व्रत देने के लिए प्रार्थना की । तब मुनिवर ने उन्हें यह व्रत पालन करने को कहा तथा सब विधि बताई । राजा ने सबके साथ इस व्रत