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व्रत कथा कोष
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समोप बैठ गयो। फिर अपने दोनों हाथ जोड़कर बोली हे दीनदयाल (स्वामिन) अब आप मेरे पुत्र की भावी स्थिति पूर्ण रूप से कहो। तब महाराज ने कहा हे भव्य कन्ये ! अभी तुम पुत्र को अपने पास मत रखो क्योंकि उनके पिता व सौतेली मां ने उसको किसी भी तरह से मारने का दुष्ट विचार मन में किया है । अतः उसे अभी दक्षिण देश में भेज दो। यह सुनकर रानी को बहुत ही आनन्द पाया। दोनों नमोस्तु कर घर पाये । फिर पुत्र अपनी माता की प्राज्ञा लेकर राजमहल से जिनमन्दिर में आया। फिर जिन भगवान को बड़ी भक्ति से नमस्कार कर पद्मावती की मूर्ति को अपनो पीठ पर रखकर एक वायुवेगी घोड़े पर बैठकर नगर के बाहर निकला । इधर उसके पिता ने उसके पीछे सेना भेजी पर पद्मावती देवी का मुख देखकर पीछे हो गई इसलिए थककर जिनदत्त नहीं मिला ऐसा सोचकर वे वापस आये । जिनदत्त तो बड़े वेग से दक्षिण दिशा में भाग गया। वहां एक जंगल में शाम को पेड़ के नीचे पद्मावति देवी को रखकर वहीं जमीन पर सो गया । तब पद्मावति ने स्वप्न में यह कहा कि तुम यहीं पर एक गांव बसाकर यहीं मेरा मन्दिर बनाकर यहीं मेरी स्थापना कर इस गांव का नाम हुमच रखो । यह स्वप्न देख कर जिनदत्त जग गया। उसने देवी की प्राज्ञा प्रमाण वैसा ही किया और अपनी माता श्रियाल देवी को वहीं बुलाया। फिर उसने वीर पांडेय राजा की लड़की से विवाह किया और सुख से अपने परिवार सहित रहने लगा।
बाद में एक दिन उस जिनदत्तराय को संसार से वैराग्य उत्पन्न हुआ जिससे अपने पुत्र को राज्य देकर वे तपोवन में गये । वहां पर एक दिन निर्ग्रन्थ मुनि के पास जिनदीक्षा ली। कठिन तपश्चर्या की। अन्त समय में समाधिपूर्वक मरण हुआ जिससे स्वर्ग में देव हुए।
यह कथा माणिक्यनन्दि मुनि महाराज के मुख से सुनकर गंडादित्य आदि सब को बहुत खुशी हुई। फिर राजा ने उनसे पूछा कि हे ज्ञानसिंधु मुनिराज ! इस नगर के बाहर ७७० मुनि अग्नि से दग्ध होकर मरे इसका कारण क्या है ? यह प्रश्न सुन मुनिश्वर ने कहा इस हुंडावसर्पिणी पंचमकाल के दोष से जिनधर्म का नाश होगा । जिनमुनि जिनप्रतिमा जिन मन्दिर इनका लोप हो जायेगा।