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व्रत कथा कोष
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लेना चाहिए । यों तो श्रावकमात्र का कर्त्तव्य है कि वह अपने दैनिक षटकर्मो का पालन करे । देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान के कार्य प्रत्येक गृहस्थ के लिए करणीय है, अतः इनका नियम जीवन भर के लिए कर लेना आवश्यक है । इन करणीय कार्यों के किये बिना कोई श्रावक नहीं कहा जा सकता है । आचार्य ने इन आवश्यक कर्त्तव्यों की व्रत संज्ञा इसीलिए बतलायी है कि जो सर्वदा के लिए इनका पालन करने में अपने को असमर्थ समझते ६ वे भी इनके पालन करने की ओर झुकें। जब एक बार इन कृत्यों को ओर प्रवृत्ति हो जाय तथा प्रात्मा अन्तर्मुखी हो जाय तो फिर इन व्रतों के पालने में कोई भी कठिनाई नहीं है ।
दैनिक षटकर्म करने से श्रात्मा में अद्भुत शक्ति उत्पन्न होती है तथा श्रात्मा शुभोपयोग रूप परिणति को प्राप्त होता है । बात यह है कि आत्मा की तीन प्रकार की परिणतियां होती है, शुद्धोपयोग, शुभोपयोग और प्रशुभोपयोग रूप । चैतन्य, आनन्द रूप आत्मा का अनुभव करना, इसे स्वतन्त्र अखण्ड द्रव्य समझना श्रौर पर-पदार्थों से इसे सर्वथा पृथक् अनुभव करना शुद्धोपयोग है । कषायों को मन्द करके अर्थात् भक्ति, दान, पूजा, वैयावृत्य, परोपकार आदि कार्य करना शुभोपयोग है । पूजा, दर्शन, स्वाध्याय आदि से उपयोग जीवकी प्रवृत्ति विशेष शुद्ध नहीं होती है, शुभरूप हो जाती हैं । तीव्र कषायोदय परिणाम, विषयों में प्रवृत्ति, तीव्र विषयानुराग, आर्तपरिणाम, असत्य भाषण, हिंसा, अपकार आदि कार्य अशुभोपयोग हैं । जिन पूजाव्रत, जिनदर्शन व्रत, गुरुभक्ति व्रत एवं स्वाध्याय व्रत करने से जीव को शुभोपयोग की प्राप्ति होती है तथा कालान्तर में शुद्धोपयोग भी प्राप्त किया जा सकता है और आत्मबोध भी प्राप्त होता हैं, जिससे राग-द्वेष, मोह आदि दूर किये जा सकते हैं । अहंकार और ममकार जिनके कारण इस जीव को संसार में अनादिकाल से भ्रमण करना पड़ रहा है, दूर किये जा सकते हैं । अतः उपर्युक्त व्रतों का अवश्य पालन करना चाहिए ।
कथा
पूजा के अन्दर प्रसिद्ध मेंढक की कथा पढ़, जो भगवान के समवशरण में मात्र एक फूल की पंखुड़ी लेकर जा रहा था मौर रास्ते में ही हाथी के पैर के नीचे आने से उसका मररण हो गया था, फिर भी उसकी पूजा की भावना मात्र से उसे स्वर्ग सुख की प्राप्ति हुई ।