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व्रत कथा कोष
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मुखावलोकन व्रत निरवधि कहलाता है, क्योंकि दोनों ही मान्यतानों में इस व्रत के लिए कोई तिथि निश्चित नहीं की गयी है । प्राचार्य ने यहां पर दूसरी मान्यता को प्रधानता दी है ।
अंत में व्रत का उद्यापन करे, उस समय पंचपरमेष्ठि विधान करे, चतुर्विध संघ को प्राहारादि देवे, शास्त्र दान करे ।
कथा
राजा श्रेणिक और रानी चेलना की कथा पढ़ े ।
जिनपूजाव्रत, गुरुभक्ति एवं शास्त्रभक्ति व्रतों का स्वरूप
जिन पूजाप्यष्टद्रव्यैः यदा विधानेन परिपूर्णा भवेत् तदाहारं ग्रहीष्यामि, इति संकल्प: । जिनपूजाविधानाख्यव्रतम् । एवमेव जिनदर्शन नियमस्तथा गुरुभक्तिनियमस्तथा शास्त्रभक्तिनियमश्च कार्यः ।
अर्थ :- इस प्रकार का नियम करना कि विधिपूर्वक प्रष्टद्रव्यों से जिनपूजा पूर्ण करने पर आहार ग्रहण करूंगा, जिनपूजा विधान व्रत है । इसी प्रकार जिदनर्शन करने का नियम करना, गुरुभक्ति करने का नियम करना एवं शास्त्रभक्ति स्वाध्याय करने का नियम करना, जिनदर्शन, गुरुभक्ति एवं शास्त्रभक्ति व्रत है ।
विवेचन :- प्रच्छे कार्य करने के नियम को व्रत कहते हैं, व्रत की इस परिभाषा के अनुसार जिनपूजा, जिनदर्शन, गुरुभक्ति, शास्त्रस्वाध्याय आदि के नियमों को भी व्रत कहा गया है । इन व्रतों में इतना ही संकल्प करना पड़ता है कि पूजा, दर्शन, गुरुभक्ति या शास्त्र स्वाध्याय को सम्पन्न करके भोजन ग्रहण करूंगा । अपने संकल्प के अनुसार उपर्युक्त धार्मिक कृत्यों को सम्पन्न करने पर आहार ग्रहण किया जाता है । इन व्रतों के लिए कोई तिथि या मास निश्चित नहीं है, बल्कि सदा ही देवपूजा, देवदर्शन, गुरुभक्ति और स्वाध्याय जैसे धार्मिक कार्यों को करना चाहिए । आगम में जीवन भर के लिए ग्रहण किये गये व्रत की यम संज्ञा और अल्पकालिक व्रत की नियम संज्ञा बतायी गयी है । जो जीवन भर के लिए उक्त धार्मिक कृत्यों का नियम करने में असमर्थ हो, उन्हें कुछ समय के लिए अवश्य नियम