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व्रत कथा कोष
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इस मन्त्र से १०८ पुष्प लेकर जाप करे, ग्रामोकार मन्त्र का १०८ बार जाप करे, व्रत कथा पढ़े, एक थाली में छः पान रखकर उन पानों के ऊपर अष्टद्रव्य रखे, उसके अन्दर एक सुवर्ण पुष्प रखे, अर्ध्य हाथ में लेकर मंदिर की तोन प्रदक्षिणा लगावे, मंगल आरती उतारे, अर्ध चढ़ा देवे, छः नवीन सूपों में प्रत्येक में गंध अक्षत, पुष्प, फल, मिठाई, सुपारी, श्रीफल प्रादि सामग्री रखकर ऊपर से सूत्रों से ढक देना, एक सफेद धागे से बांध देना और सब को भगवान के सामने रख देना, उन छहों में से दो भगवान के सामने बढ़ा देवे, दो सौभाग्यवती स्त्रियों को देवे, एक अपने घर ले जावे, एक शासन देवता को चढ़ा देवे, उस दिन उपवास करे, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करे, दूसरे दिन सत्पात्रों को आहार देकर स्वयं पारणा करे, इस प्रकार इस व्रत को छह वर्ष पालन करे, अन्त में उद्यापन करे, उस समय एक नवीन यक्षयक्षि सहित चंद्रप्रभ प्रतिमा तैयार कर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करे, उद्यापन विधानानुसार पूजा विधि करे, चतुविध संघ को चारों प्रकार का दान देवे, उपकरण दान करे, छः संघों को मुनिश्वरों को श्राहार देवे, छह दंपतिवर्ग को भोजन देवे, उनको वस्त्रादि देकर संतुष्ट करे, नवीन जिनमंदिर बनवाये, पुराने मन्दिर का जीर्णोद्धार करे, तीर्थयात्रा करना, इस प्रकार व्रत की विधि हुई ।
कथा
इस भरत क्षेत्र के अवन्ति देश में उज्जयनी नाम का नगर है । उस नगर में सिंहसेन नामका राजा अपनी प्रियतमा लक्ष्मीमति के साथ सुख से राज्य भोग कर रहा था, उस नगर में जिनदत्त नामका राजश्रेष्ठी अपनी सेठानी जिनमति के साथ रहता था । एक दिन प्रतिमुक्त नामके मुनिश्वर आहार के लिये सेठ के घर पधारे । सेठ ने नवधाभक्तिपूर्वक आहार दिया, मुनिश्वर ने सेठ को आशीर्वाद दिया और जंगल को वापस चले गये, पूर्वकृत कर्मोदय से सेठ को तीन दिन के बाद कुष्ट रोग हो गया, ऐसा देखकर सेठ की सेठानी जिनमति बहुत खिन्न होने लगी, मन में बहुत दुःखी रहने लगी, लेकिन जिनेन्द्र भगवान की दृढ भक्त रहने के कारण पति का कुष्ट रोग निवारणार्थ भगवान की भक्ति करने लगी, नित्य जिनेन्द्राभिषेक करके पति को देने लगी, सेठानी की जिनेन्द्रभक्ति दृढ़ है, ऐसा देखकर ज्वालामालिनी देवी का प्रासन कम्पायमान हुआ, श्रवधिज्ञान के द्वारा जिनमति का संकट जानकर सेठानी के