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व्रत कथा कोष
इस व्रत को पूर्ण होने पर उद्यापन करे । उस समय प्रादिनाथ तीर्थंकर भगवान की यक्षयक्षि सहित नवीन मूर्ति बनवा कर पंच कल्याणक प्रतिष्ठा करे, चारों प्रकार के संघ को चारों प्रकार का दान देवे । इस व्रत की ऐसी विधि है कि जो भव्य जीव गुरु के सानिध्य में जाकर विधिपूर्वक व्रत को ग्रहण करता है उसको अपार पुण्यबन्ध होता है, परम्परा से मोक्ष सुख को प्राप्ति होती है ।
कथा
इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में आर्य खण्ड है । उस खण्ड में मगध देश है, उस देश में राजग्रही नाम की नगरी है । उस नगर का राजा बुद्धापन अपनी रानी इन्द्रानी के साथ भगवान महावीर के समवशरण में जाकर आदरपूर्वक हाथ जोड़कर नमस्कार करता हुआ बारह सभा में जाकर उपदेश सुनने बैठ गया । कुछ समय उपदेश सुनने के बाद, इन्द्रायणी रानी हाथ जोड़कर नमस्कार करती हुई प्रार्थना करने लगी कि हे प्रभु! मुझे संसार से पार होने के लिए कोई व्रत कहो, तब भगवान कहने लगे, हे देवि ! तुम चक्रवाल व्रत का पालन करो, ऐसा कहकर उपरोक्त व्रत विधान भगवान ने कहा, रानी ने भक्ति से नमस्कार कर व्रत को स्वीकार किया और सब नगरी में वापस लौट आये। रानी इन्द्रायिणी ने यथाविधि व्रत का पालन किया और अन्त में उसका उद्यापन किया, मरण समय समाधिपूर्वक मरकर स्वर्ग में देव हुई और भवांतर से मोक्ष गई ।
श्रथ चतुविंशतिगरिगनी व्रतकथा
व्रत विधि :- फाल्गुन कृ. ३० को एकाशन करना । चैत्र शु. १ को प्रातः काल स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर सामग्री लेकर जिनालय जाये । मन्दिर की तीन प्रदक्षिणा करके नन्दादीप उतारे । २४ तीर्थंकर की प्रतिमा यक्षयक्षी के साथ स्थापित करके पंचामृत अभिषेक करे । श्रष्टद्रव्य से पूजा करे । श्रुत गरणधर की पूजा करके यक्षयक्षी व ब्रह्मदेव की अर्चना करे । एक पाटे पर २४ पान रखकर उस पर अक्षत फल फूल रखे ।
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं श्रहं वृषभादिवर्ध मत्यवर्तमान तीर्थंकरेभ्यो यक्षयक्षी सहितेभ्यो नमः स्वाहा ।