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व्रत कथा कोष
अष्टमी के दिन मंत्र का १०८ पुष्प लेकर जाप्य करे, रणमोकार मंत्र का १०८ बार जाप्य करे, नन्दीश्वर भक्ति बोलकर व्रत कथा पढ़े, एक थाली में महा अर्घ्य लेकर मंदिर को तोन प्रदक्षिणा लगावे, मंगल आरती उतारे, अर्घ्य भगवान को चढ़ा देवे। इसी प्रकार प्रत्येक तिथि को उपरोक्त टेबल के अनुसार ही जाप्य व भोजनसामग्री करे या लेवे, पूजा भी अष्टमी के समान हो करे, मंत्र जाप्य में १०८ सुगन्धित पुष्प लेना परम आवश्यक है, पुष्पों से ही जाप प्रत्येक दिन करे, पूर्णिमा के दिन चतुर्विध संघ को दान देकर अपना भोजन करे, इस व्रत का पालन तीन वर्ष या पांच वर्ष या सात वर्ष या आठ वर्ष तक करना चाहिये, जैसी जिसकी शक्ति हो, वैसे पालन करना चाहिए, जो इस व्रत को अच्छी तरह से पालन करता है, वह सात आठ भव में अथवा तीसरे भव अथवा इसी भव से मोक्ष जाता है । अन्त में व्रत का उद्यापन करे, नन्दीश्वर प्रतिमा की पांच कल्याणक करके जिनमंदिर में स्थापना करे। चौबीस तीर्थंकर प्रतिमा की प्रतिष्ठा करावे, जीर्णोद्धार मंदिर जी का करावे, चतुर्विध संघ को आहारदानादि देवे, मंगल द्रव्य पाठ २ देवे ।
अष्टान्हिका व्रत कथा इस व्रत को पहले अनन्तवीर्य, अपराजित ने पालन किया, इसलिये दोनों चक्रवर्ती हुए, और विजय कुमार सेनापति हुए, जय कुमार व सुलोचना अनुक्रम से गणधर व सुलोचना देव हुई, श्रीपाल राजा का कुष्टरोग चला गया। इस की आगे कथा कहता हूं।
___ इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में आर्यखंड के अन्दर अयोध्या नगरी में पहले इक्ष्वाकु वंशी हरिषेण नाम का चक्रवर्ती राजा अपनी ६६ हजार रानियों के साथ राज्य करता था, एक दिन वसन्त ऋतु के समय हरिषेण अपने परिवार सहित वनक्रीड़ा को गया, वन में एक पेड़ के नीचे एक शिला पर दो अवधिज्ञान संपन्न मुनिराज विराजे हुए थे, एक का नाम अरिंजय और दूसरे का नाम अमितंजय था, दोनों ही एक साथ में प्रायश्चित विधि जोर २ से पढ़ रहे थे, मुनिराज का शब्द सुनकर राजा मंत्री से कहने लगा कि हे मंत्री तुमने देखा, यह शब्द कहां से आ रहा है, तब मंत्री ने कहा कि राजन सुना है दो मुनिराज एक शिलापर बैठकर पाठ कर रहे हैं, तब राजा