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व्रत कथा कोष
ने अपनी गंधर्वश्री रानी को साथ में लेकर मुनिराज के पास जाकर मुनिराज को तीन प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार किया और धर्म का स्वरूप, वस्तु तत्त्व, नौ पदार्थ, षटद्रव्य, पंचास्तिकायादि का स्वरूप सुना, मुनिधर्म का स्वरूप, श्रावकधर्म का स्वरूप आदि सुना राजा सुनकर बहुत ही सन्तुष्ट हुना, राजा ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की - हे गुरुदेव मैंने पूर्वभव में ऐसा कौनसा पुण्य किया था कि मैं इस भव में चक्रबर्ती हुआ हूं ।
तब मुनिराज कहने लगे कि हे राजन ! पहले इस प्रयोध्या नगरी में कुबेरमित्र नामक एक वैश्य था, उसकी सुन्दरी नामक स्त्री थी, उसके गर्भ से एक तुम और हम दोनों उत्पन्न हुए थे । एक श्रीवर्मा, जयकीर्ति तीसरा जयचन्द था। पहला श्रीवर्मा तुम्हारा ही जीव था, श्रीवर्मा ने एक बार नन्दीश्वर पर्व में गुरु के पास आठ दिन का नन्दीश्वर व्रत ग्रहण किया, कितने ही वर्षों तक उसने इस व्रत का पालन किया अंत में समाधि से मरकर स्वर्ग में देव हुआ, वहां से चयकर तुम हरिषेण चक्रवर्ती हुए हो, तुम्हारे दोनों भाइयों ने भी इस नन्दीश्वर व्रत को पालन करते हुए श्रावक धर्म का अच्छी तरह से पालन किया था । उसके प्रभाव से इस भरत क्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में एक क्षायिक सम्यग्दृष्टि विमलवाहन नाम का सेठ अपनी श्रार्या लक्ष्मीमति के साथ रहता था, उन्ही के यहां अरिंजय और अमितंजय नामक हम दोनों उत्पन्न हुए हैं । बालपने से ही धार्मिक संस्कारों के कारण बालब्रह्मचारी रहकर गुरु के निकट जिनदीक्षा ग्रहण की और घोर तपश्चरण करके चारणऋद्धि प्राप्त कर ली है, हे राजन! तुम चक्रवर्ती हुए हो, इसी पूर्व संबंध से हम को देखकर तुम्हें प्रीति उत्पन्न हुई हैं, ऐसा कहकर चक्रवर्ती को नन्दीश्वर द्वीप का वर्णन सुनाया, और कहने लगे कि इस नन्दीश्वर द्वीप में सौधर्मादि इन्द्र और सब देवगरण जाकर आनन्द उत्सवपूर्वक पूजा करते हैं, भोर मनुष्य पर्याय में श्रावक वर्ग अपने यहां ही नन्दीश्वर द्वीप की स्थापना कर पूजा करते हैं । इस व्रत का अवश्य ही पालन करना चाहिये, अंत में उद्यापन करना चाहिये, इस व्रत का पालन करने से एक नवीन मन्दिर की प्रतिष्ठा करने से जितना मिल पुण्य लगता है उतना पुण्य इस व्रत के पालन से मिलता है ।