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व्रत कथा कोष
गरणधरवलय व्रत कथा तीनों अष्टाह्निका में से किसी भी अष्टाह्निका की अष्टमी के दिन प्रातः स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहनकर अभिषेक पूजा का सामान लेकर मन्दिर जी में जावे । मन्दिर की तीन प्रदक्षिणा लगाकर ईर्यापथ शुद्धि कर भगवान को नमस्कार करे। अभिषेक पीठ पर भगवान को स्थापन कर, पंचामृताभिषेक करे । मण्डप वेदिका पर गणधरवलय मांडला बनावे, मण्डल को खूब सजावे, आगे दिशाओं में मंगलकलश रखकर मध्य के मंगल कलश पर गणधरवलय यत्र स्थापन करे, भगवान को स्थापन करे। उसके बाद नित्य-पूजा करके गणधरवलय विधान करे, मन्त्र जाप्य विधान में कहे अनुसार करे।
एक थाली में जयमाला अर्घ्य लेकर मन्दिर की तीन प्रदक्षिणा लगावे, मंगल आरती उतारे, अर्घ्य चढ़ा देवे । इस प्रकार अष्टमी से लगाकर पूर्णिमा पर्यंत
आठ दिन पूजा क्रम करे अर्थात् गणधरवलय आराधना करे, चतुर्विध संघ को पाहारादि देवे । इस व्रत को ४८ वर्ष तक उत्कृष्ट २४ वर्ष तक अथवा १२ वर्ष तक अथवा ६ वर्ष तक अथवा ३ वर्ष तक भी करने का नियम है। कोई भी एक नियम से करने पर उद्यापन करे । उस समय यथाशक्ति एक नवीन मन्दिर बनवाकर प्रतिष्ठा करे और सब व्यवस्था करे ।
कथा
इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मंगलावती नामक देश है। उस देश में रत्नसंचय नाम का एक सुन्दर नगर है। उस नगर में पहले सोमवाहन नामक राजा अपनी पत्नी विनयावती के साथ सुख से राज्य करता था। उस राजा के चंद्राभ नाम का राजकुमार अपनी भार्या चन्द्रमुखी के साथ रहता था ।
एक समय में वनमाली ने एक कमलपुष्प राजा को भेंट में चढ़ाया । राजा ने उस पुष्प को हाथ में उठाकर देखा तो उस कमल में एक मरा हुआ भ्रमर था, मरे हए भ्रमर को देखकर राजा सांसारिक शरीर-भोगों से विरक्त हो गया और अपना राज्य अपने पुत्र को देकर एक मुनिराज के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करली और तपश्चरण कर के मोक्ष को गया।
इधर चंद्राभ कुमार को राज्य प्राप्त होते ही अहंकारवश सप्त-व्यसन में