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व्रत कथा कोष
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में पूर्वादि तीन दिन और तीन रात्रियों में व्रत करते हैं । एक दिन व्रत, पश्चात् एकाशन पुनः व्रत इस प्रकार तीन दिन व्रत किया जाता है । पांच वर्ष तक व्रत करने के उपरान्त उद्यापन किया जाता है । पूर्व तिथि के क्षय होने पर पूर्वा तिथि अमावस्या मानी जाती है । कुछ प्राचार्य इस व्रत को पाक्षिक मानते हैं । उनके मत से तिथि - क्षय होने पर पूर्वा द्वितीया तिथि ली गयी है, अतः द्वितीया से चतुर्थी पर्यन्त व्रत करना चाहिए । परन्तु यह मत प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि बलात्कार गरण के आचार्य चतुर्थी तिथि को दशलक्षण व्रत की धारणा तिथि मानते हैं । अतः चतुर्थी का ग्रहण नहीं होना चाहिए ।
तिथिवृद्धि होने पर एक दिन अधिक व्रत करना चाहिए । इस व्रत का फल पूर्व ही होता है । दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, क्षायिक लब्धि, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन और क्षायिक चारित्र आदि की प्राप्ति इस व्रत के करने से होती है ।
विवेचन - अपूर्व व्रत भादों सुदी प्रतिपदा से लेकर तृतीया तक किया जाता है । इसका दूसरा नाम त्रैलोक्यतिलक व्रत भी है । इस व्रत में प्रतिपदा को उपवास कर गृहारम्भ का त्याग कर तीनों काल की चौबीसी की पूजा करनी चाहिए अथवा तीन लोक की रचना कर अकृत्रिम चैत्यालयों की स्थापना कर विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। तीनों काल 'श्रीं ह्रीं त्रिलोक सम्बन्ध्य कृत्रिम - जिनालयेभ्यो नमः' मन्त्र का जाप करना चाहिए । द्वितीया के दिन उपवास करना और शेष धार्मिक विधि पूर्ववत् ही सम्पन्न की जाती है । तृतीया के दिन उपवास करना घर का आरम्भ त्याग कर जिनालय में जाकर उत्साहपूर्वक धार्मिक अनुष्ठानों को पूर्ण करना । प्रकृत्रिम जिनालयों का पूजन, विकास सम्बन्धी चतुविंशति जिनपूजन आदि पूजन विधानों को विधिपूर्वक करना चाहिए । इस दिन तीनों काल 'ॐ ह्रीं त्रिकाल सम्बन्धित्रिचतु विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:' इस मंत्र का जाप किया जाता है । रात जागरण कर धर्मध्यानपूर्वक बितायी जाती है तथा चौबीसों भगवान् की स्तुतियों को रात में पढ़कर भावनाओं को पवित्र किया जाता है । तिथिक्षय होने पर इस व्रत को अमावस्या से आरम्भ करना चाहिए । समाप्ति सर्वदा ही तृतीया को की जाती है । लोक में तिलक व्रत का विधान अन्यत्र केवल तृतीया का