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व्रत कथा कोष
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की होती हैं । और उनकी क्रम से तीन, दो और एक पल्य की बड़ी-बड़ी प्रायु होती है। आहार बहुत कम होता है । ये सब समान ( राजा प्रजा के भेद रहित ) होते हैं । उनको सब प्रकार की सामग्री कल्पवृक्षों द्वारा प्राप्त होतो है । इसलिये वे व्यापार धन्धा आदि की झंझट से बचे रहते हैं । इस प्रकार वे ( वहां के जीव ) आयु पूर्ण कर मन्द कषायों के कारण देव गति को प्राप्त होते हैं । भरत और ऐरावत क्षेत्रों के आर्य खण्डों में उत्सपिणो अवसर्पिणी ( कल्पकाल ) के छः काल (सुखमासुखमा, सुखमा, सुखमा-दुखमा, दुखमा-सुखमा, दुखमा और दुखमा-दुखमा ) की प्रवृत्ति होती है । सो इनमें भी प्रथम के तीन कालों में तो भोगभूमि की ही रीति प्रचलित रहती है । शेष तीन काल कर्मभूमि के होते हैं । इसलिए इन शेष कालों में चौथा ( दुखमा-सुखमा ) काल है, जिसमें त्रेसठ शलाका आदि महापुरुष उत्पन्न होते हैं।
पांचवें और छठवें काल में कम से आयु, काय, बल, वीर्य घट जाता है और इन कालों में कोई भी जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है। विदेह क्षेत्रों में ऐसी कालचक्र की फिरन नहीं होती है । वहां तो सदैव चौथा काल रहता है । और कम से कम २० तथा अधिक से अधिक १६० श्री तीर्थकर भगवान तथा अनेकों सामान्य केवली और मुनि श्रावक आदि विद्यमान रहते हैं और इस लिये सदैव ही मोक्षमार्ग का उपदेश व साधन रहने से जीव मोक्ष प्राप्त करते रहते हैं। जिन क्षेत्रों में रहकर जीव प्रात्मधर्म को प्राप्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं अथवा जिनमें मनुष्य असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प व विद्यादि द्वारा आजीविका करके जीवन निर्वाह करते हैं, वे कर्मभूमिज कहलाते हैं ।
इस मनुष्य क्षेत्र के मध्य जो जंबूद्वीप है, उसके बीचों-बीच सुदर्शन मेरु नाम का स्तम्भाकार एक लाख योजन ऊंचा पर्वत है । इस पर्वत पर सोलह अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। यह वही पर्वत है जिस पर भगवान का जन्माभिषेक इन्द्रादि देवों द्वारा किया जाता है । इसके सिवाय ६ पर्वत और भी दण्डाकार (भीत के समान ) इस द्वीप में हैं, जिनके कारण यह द्वीप सात क्षेत्रों में बँट गया है । ये पर्वत सुदर्शन मेरु के उत्तर और दक्षिण दिशा में आड़े पूर्व-पश्चिम तक समुद्र से