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व्रत कथा कोष
उसे इस मृतिकामय गुरु की कृपा से विद्याए सिद्ध हो गयी थीं, इस प्रकार गुरु की कृपा से हो व्रत सफल होते हैं । बिना गुरु की भावना के ग्रहण किये गये व्रत कुछ भी कार्यकारी नहीं हो सकते हैं। जैसे मिट्टी का घर बिवा कर्ता के निरर्थक हैं, उसी प्रकार गुरु के साक्ष्य के बिना त्यक्त व्रत भी निष्फल हैं । अतएव गुरु के मुख से व्रतों को ग्रहण करना चाहिए तथा उन्हीं की साक्षीपूर्वक व्रतों को छोड़ना चाहिए।
जो स्त्री या पुरूष क्रम का उल्लंघन कर स्वेच्छा से व्रत करते हैं, वे गुरू की अवेहलना - • एवं जिनाज्ञा का लोप करने के कारण नरक में जाते हैं।
, विवेचन--व्रत सर्वदा गुरू के सामने जाकर ग्रहण करना चाहिए। यदि गुरू न मिले तो किसी तत्वज्ञ, विद्वान, ब्रह्मचारी, व्रती या अन्य धर्मात्मा से व्रत लेना चाहिए । तथा व्रतों को गुरु या विद्वान, ब्रम्हचारी के समक्ष छोड़ना भी चाहिए । यदि गुरु, विद्वान, ब्रम्हचारी आदि का सान्निध्य भी प्राप्त न हो सके तो जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के सामने ग्रहण करने तथा छोड़ने चाहिए । बिना साक्ष्य के व्रतों का यथार्थफल प्राप्त नहीं होता है । शास्त्रों में एक उदाहरण प्रसिद्ध है कि एक सेठ का मकान बन रहा था, उसमें ईट, चूना, सोमेन्ट ढोने का कार्य कई मजदूर कर रहे थे। एक मजदूर चुपचाप बिना अपना नाम लिखाए काम करने लगा, दिन भर कठोर श्रम किया । सन्ध्या समय जब सबको मजदूरी दी जाने लगी तो वह परिश्रमी मजदूर भी मुनीम के सामने पहँचा और कहने लगा-सरकार मैंने दिनभर सबसे अधिक श्रम किया है, अतः मुझे अधिक मजदूरी मिलनी चाहिए। मुनीम ने रजिस्टर से मिलाकर सभी नामदर्ज मजदूरों को मजदूरी दे दी, परन्तु जिसने कठोर श्रम किया और अपना नाम रजिस्टर में दर्ज नहीं कराया था, उसे मजदूरी नही दी । मुनीम ने साफ-साफ कह दिया कि तुम्हारा नाम रजिस्टर में नोट नहीं है, अतः तुम्हें मजदूरी नहीं दी जा सकती। इसी प्रकार जिन्होंने गुरू की साक्ष्य से व्रत ग्रहण नहीं किया है, उन्हें उसके फल की प्राप्ति नहीं होती है, अथवा अत्यल्प फल मिलता है । अतएव स्वेच्छा से कभी भी व्रत ग्रहण नहीं करने चाहिए।
व्रत को प्रावश्यकता व्रतेन यो विना प्राणी पशुरेव न संशयः । योग्यायोग्यं न जानाति भेदस्तत्र कुत्तो भवेत् ॥