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व्रत कथा कोष
प्रमाद व अज्ञानता से व्रत भंग हो जाये तो प्रायश्चित समीक्ष्य व्रतमोदय मात्रं पाल्यं प्रयत्नतः । छिन्नं दर्पात् प्रमादाद्वो प्रत्यवस्थाप्यमंजसा ॥
सा० ध० २-७६
भावार्थ : - कल्याण चाहने वाले गृहस्थ को देश कालादिक का अच्छी तरह विचार करके व्रत ग्रहण करना चाहिए। और ग्रहण किये व्रत को यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये । तथा मद के प्रवेश में अथवा प्रमाद से व्रत के खण्डित हो जाने पर सम्यक् रीति से शीघ्र ही प्रायश्चित लेकर उसे फिर से ग्रहण करना चाहिए ।
व्रत के दिनों में श्रावक का अनिवार्य कर्त्तव्य
प्रातः सामायिकं कुर्यात्ततः तात्कालिकां क्रियाम् । धौताम्बरधरो धीमान् जिनध्यानपरायणः
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भावार्थ : -- विवेकी व्रती श्रावक प्रातः काल बाह्म मुहूर्त में उठकर सामायिक करें । और बाद में शौचादिक से निवृत होकर शुद्ध साफ वस्त्र पहन कर श्री जिनेन्द्र देव के ध्यान में तत्पर रहे |
महाभिषेकमद्भुत्यैजिनागारे व्रतान्वितैः । कर्त्तव्यं सह संघेन महापूजादिकोत्सवम् ॥
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भावार्थ :- श्री मंदिर जी में जाकर सब को आश्चर्य करने वाला ऐसा महा अभिषेक करे । फिर अपने संघ के साथ समारोहपूर्वक महापूजन करे ।
ततो स्वगृहमागत्य दानं दद्यान् मुनीशिने । निर्दोषं प्राशुकं शुद्ध मधुरं तृप्तिकारणम् ॥
भावार्थ : - पश्चात् अपने घर आकर मुनियों को निर्दोष प्रासुक, शुद्ध मधुर तृप्ति करने वाला आहार देकर शेष बचे हुए श्राहारसामग्री से अपने कुटुम्ब के साथ सानंद स्वयं आहार करें ।
प्रत्याख्यानोद्यतो भूत्वा ततो गत्वा जिनालयम् । त्रिः परीत्य ततः कार्यास्तद्विध्युक्त जिनालयम् ॥