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व्रत कथा कोष
माना गया है, जिस काल में सभी कृत्य करना वर्ज्य माना है । " गुरुशुक्रयोरुभयोरपि दिशोरूदयेऽस्ते च बाल्यं वार्धक्यं च सप्ताहमेवाहुः । अनयोः बाल्ये वार्धक्ये च सति शुभकार्य न करणीयम् ।" अर्थात् उदय हो जाने पर भी गुरू और शुक्र का बाल्यकाल एक सप्ताह माना गया है । इस काल में शुभ कृत्य करने का निषेध किया गया है ।
कुछ आचार्यों ने शुक्र का पूर्व दिशा में पांच दिन तक वार्धक्य काल ( जीर्णः शुक्रोऽहनि पञ्च प्रतीच्यां प्राच्यां बालस्त्रीज्यहानीह हेयः । त्रिनान्येवं तानि दिग्वैपरीत्ये, पक्षं जीवोऽन्ये तु सप्ताहमाहुः । - आरम्मासि. पू. २०० ) माना है तथा तीन दिन बाल्यकाल स्वीकार किया है । ये दोनों ही काल शुभ कार्यों के लिए त्याज्य हैं । कुछ लोग कहते हैं कि पूर्व में उदय होने पर शुक्र का बाल्यकाल तीन दिन और पश्चिम में उदय होने पर नौ दिन बाल्यकाल रहता है। पूर्व में शुक्र अस्त होने पर पन्द्रह दिन वार्धक्य काल और पश्चिम में अस्त होने पर पांच दिन वार्धक्यकाल होता है । गुरू का भी तीन दिन बाल्यकाल और पांच दिन वार्धक्य काल होता है । बाल्य और वार्धक्य काल में शुभ कृत्यों का करना त्याज्य माना है ।
ज्योतिष में प्रत्येक शुभकार्य के लिए शुक्र और गुरु का बल, चन्द्रशुद्धि और सूर्यशुद्धि ग्रहण की जाती है । इन ग्रहों के बल के बिना शुभकार्यों का करना त्याज्य माना है | चन्द्रशुद्धि से तिथि, नक्षत्र, योग, करण और वार की शुद्धि अभि प्रोत है तथा विशेष रूप से चन्द्रराशि का विचार कर उसके शुभाशुभत्व के अनुसार फल को ग्रहण करना हैं । चन्द्रशुद्धि प्रत्येक कार्य में ली जाती है । तिथ्यादि की शुद्ध लेना तथा उनके बलाबलत्व का विचार करना एवं सूक्ष्म विचार के लिए मुहूर्त मान के आधार पर शुभाशुभत्व को ग्रहरण करना चन्द्रशुद्धि से अभिप्रेत है । यात्रा, विवाह, उपनयन, प्रतिष्ठा, गृहनिर्माण, गृहप्रवेश आदि समस्त कार्यों के लिए चन्द्रशुद्धि का विचार करना आवश्यक है ।
सूर्यशुद्धि भी प्रायः सभी महत्वपूर्ण माङ्गलिक कार्यों में ग्रहण की गयी है । यद्यपि चन्द्रमा की अपेक्षा सूर्य का स्थान महत्वपूर्ण हैं फिर भी छोटे-बड़े सभी कार्यों में इसके अनुकूलत्व और प्रतिकूलत्व का विचार नहीं किया गया है ।
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