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व्रत कथा कोष
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विवेचन- ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्रतिपदा तिथि पुर्वाण्हव्यापिनी व्रत के लिए ग्रहण की जाती है । द्वितीया तिथि भी शुक्ल पक्ष में पूर्वाण्हव्यापिनी और कृष्णपक्ष में सर्वदिन व्यापिनी ली गयी है । “पूर्वेयुर सती प्रातः परेद्य स्त्रिमुहूर्तगा" अर्थात् जो द्वितीया पहले दिन न होकर अगले दिन वर्तमान हो तथा उदय काल में कम सेकम तीन मुहूर्त-६ घटी ३६ पल हो, वही व्रत के लिए ग्रहण करने योग्य है । द्वितीया तिथि को व्रत के लिए जैनाचार्यों ने छः घटी प्रमाण माना है । जो तिथि इस प्रमाण से न्यून होगी वह व्रत के लिए ग्राह्य नहीं हो सकती है । सर्वदिन व्यापिनी तिथि की परिभाषा भी यही की गयी है कि समस्त तिथि का षष्ठांश प्रमाण जो तिथि उदय काल में रहे, वह सर्वदिनव्यापिनी कहलाती है । तृतीया तिथि को वैदिकधर्म में व्रत के लिए परान्वित ग्रहण किया गया है ।
एकादश्यष्टमी षष्ठी पौर्णमासी चतुर्दशी। प्रामावस्या तृतीया च ता उपोष्या, परान्विताः ॥
__-नि. सि. पृ. २३ इसका अभिप्राय यह है कि एक घटो प्रमाण या इससे अल्प रहने पर भी तृतीया तिथि परान्विन हो ही जाती है । अतः प्रातःकाल एकाध घटी तिथि के रहने पर भी व्रत के लिए उसका ग्रहण किया गया है । इस प्रकार वैदिकधर्म में प्रत्येक तिथि को व्रत के लिए हीनाधिक मान के रूप में ग्रहण नहीं किया गया है । प्रत्येक तिथि का मान व्रतकाल के लिए अलग बतलाया है । जैनाचार्यों ने इसी सिद्धान्त का खण्डन किया है और सर्व सम्मति से व्रततिथि का मान छः घटी अथवा समस्त तिथि का षष्ठांश माना है । प्राचार्य ने उपर्युक्त श्लोकों में प्रतिपदा, द्वितीया और तृतीया तिथि के नियम निर्धारित करते हुए यही बताया है कि जो तिथि छः घटी प्रमाण नहीं है, वह चाहे पूर्वविद्ध हो, चाहे परविद्ध, व्रत के लिए ग्रहण नहीं की जा सकती है । निर्णयसिन्धु में प्रत्येक तिथि की जो अलग-अलग व्यवस्था बतलायी है, वह युक्तिसंगत नहीं है । सामान्य रूप से प्रत्येक व्रत के लिए छः घटी या समस्त तिथि का षष्ठांश ग्रहण करना चाहिए।
व्रतों के भेद, निरवधि व्रतों के नाम तथा कवलचान्द्रायण की परिभाषाव्रतानि कति भेदानि, इति चेदुच्यते