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व्रत कथा कोष
चतुर्दशी को ही इस व्रत की समाप्ति की जाएगी। क्योंकि चतुर्दशी की छाया में - पूर्णिमा अवश्य आ जायगी ।
तिथि का सर्वथा प्रभाव कभी नहीं होता है, केवल उदयकाल में तिथि का क्षय दिखलाया जाता है । जिस तिथि का पंचांग में क्षय लिखा रहता है । वह तिथि भी पहले वाली तिथि की छाया में कुछ घटी प्रमाण रहती है । अतएव अष्टान्हिका व्रत की समाप्ति प्रतिपदा को कभी नहीं की जायगी (पूर्णिमा के अभाव में चतुर्दशी ग्राह्य बताई गई है । क्योंकि चतुर्दशी प्रागे प्राने वाली पूर्णिमा से विद्ध है | )
इसी प्रकार एक तिथि बढ़ जाने पर भी श्रष्टान्हिका व्रत की समाप्ति पूर्णिमा को ही होगी । यदि कदाचित दो पूर्णिमाएं हो जाय और दोनों ही पूर्णिमा उदय काल में छः घटी से अधिक हो तो किस पूर्णिमा को व्रत की समाप्ति की जायगी । प्रथम पूर्णिमा को यदि व्रत की समाप्ति की जाती है, तो आगे वाली पूर्णिमा भी सोदय तिथि होने के कारण समाप्ति के लिए क्यों नहीं ग्रहरण की जाती ?
आचार्य सिंहनन्दीने इसी का समाधान 'अधिकस्याधिक फलम्' कहकर किया है । अर्थात् दूसरी पूर्णिमा को व्रत समाप्त करना चाहिए क्योंकि पूर्णिमा भी रसघटी प्रमाण उदय काल में होने से ग्राह्य है । एक दिन अधिक व्रत कर लेने से अधिक फल मिलेगा । अतएव दो पूर्णिमाओं के होने पर आगे वाली दूसरी पूर्णिमा को व्रत समाप्त करना चाहिए ।
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जब दो पूर्णिमा के होने पर पहली पूर्णिमा ६० घटी प्रमाण है और दूसरी प्रमाण तीन घटी प्रमाण है, तब क्या दूसरी पूर्णिमा को व्रत समाप्त किया जायगा ? आचार्य ने इस प्राशंका का निर्मूलन करते हुए बताया है । की दूसरी पूर्णिमा छः घटी से कम होने के कारण व्रत की पूर्णिमा ही नहीं है, अतः उसे तो पारणा के लिये प्रतिपदा तिथि में परिगणित किया गया । व्रत की समाप्ति ऐसी अवस्था में में प्रथम पूर्णिमा को ही कर ली जायगी तथा आगे वाली पूरिणमा जो की प्रतिपदा से संयुक्त है पारणातिथि में प्रायगी ।