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ब्रत कथा कोष
जाता है । प्रथम मेरु के व्रतों के पश्चात लगातार द्वितीय मेरु विजय के भी उपवास . करने चाहिये।
विजय मेरू के सोलह चैत्यालय सम्बन्धी सोलह उपवास तथा प्रत्येक उपवास के अनन्तर पारणा को जाती है । प्रत्येक मेरु पर भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक ये चारों वन हैं । तथा प्रत्येक वन में प्रधान चार चैत्यालय हैं । प्रत्येक वन में चैत्यालयों के उपवासों के अनन्तर तेला की जाती है तथा प्रत्येक तेला के उपरान्त पारणा भी । इस प्रकार द्वितीय मेरु सम्बन्धी सोलह उपवास, चार तेलाए तथा बीस पारणाएं की जाती हैं ।
इनकी दिन संख्या भी १६+६+४+ १६ = ४४ ही होती है। तृतीय अचल मेरू संबंधी भी १६ उपवास, तेलाएँ ४ तथा पारणाएँ २०, अतः इसकी दिनसंख्या भी ४४ ही होती है । इसी प्रकार पुष्कराध के दोनों मेरू मन्दिर और विद्युन्माली संबंधी उपवासों की संख्या तथा दिन संख्या पूर्ववत ही है । पंच मेरू संबंधी व्रत करने की दिन संख्या ४४४५ = २२० होती है । इस व्रत में ८० प्रोषधोपवास, २० तेलाए और १०० पारणाएं की जाती हैं । इन उपवास, तेला,
और पारणाओं की दिनसंख्या जोड़ने पर भी पूर्ववत ही होती है। क्योंकि २० तेलाओं के ४० दिन होते हैं, अतः ८०+४० + १००=२२० दिन तक व्रत करना पड़ता है । व्रत के दिनों में पूजन, सामायिक तथा भावनाओं का चिन्तन विशेष रूप से किया जाता है । मेरू व्रत का प्रारम्भ श्रावण मास से माना जाता है । युग या वर्ष का प्रारम्भ प्राचीन भारत में इसी दिन से होता था । श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से प्रारम्भ कर लगातार २२० दिन तक यह व्रत किया जाता है । एक बार व्रत करने के उपरान्त उसका उद्यापन कर दिया जाता है ।
प्राचार्य ने बताया है कि तिथिवृद्धि का प्रभाव मेरू व्रत पर कुछ भी नहीं पड़ता है, क्योंकि यह व्रत वर्ष में ७ महीने १० दिन तक करना होता है। इसमें तिथि वृद्धि और तिथि क्षय बराबर होते रहने के कारण दिन संख्या में बाधा नहीं आती है।