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________________ ४८ ] ब्रत कथा कोष जाता है । प्रथम मेरु के व्रतों के पश्चात लगातार द्वितीय मेरु विजय के भी उपवास . करने चाहिये। विजय मेरू के सोलह चैत्यालय सम्बन्धी सोलह उपवास तथा प्रत्येक उपवास के अनन्तर पारणा को जाती है । प्रत्येक मेरु पर भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक ये चारों वन हैं । तथा प्रत्येक वन में प्रधान चार चैत्यालय हैं । प्रत्येक वन में चैत्यालयों के उपवासों के अनन्तर तेला की जाती है तथा प्रत्येक तेला के उपरान्त पारणा भी । इस प्रकार द्वितीय मेरु सम्बन्धी सोलह उपवास, चार तेलाए तथा बीस पारणाएं की जाती हैं । इनकी दिन संख्या भी १६+६+४+ १६ = ४४ ही होती है। तृतीय अचल मेरू संबंधी भी १६ उपवास, तेलाएँ ४ तथा पारणाएँ २०, अतः इसकी दिनसंख्या भी ४४ ही होती है । इसी प्रकार पुष्कराध के दोनों मेरू मन्दिर और विद्युन्माली संबंधी उपवासों की संख्या तथा दिन संख्या पूर्ववत ही है । पंच मेरू संबंधी व्रत करने की दिन संख्या ४४४५ = २२० होती है । इस व्रत में ८० प्रोषधोपवास, २० तेलाए और १०० पारणाएं की जाती हैं । इन उपवास, तेला, और पारणाओं की दिनसंख्या जोड़ने पर भी पूर्ववत ही होती है। क्योंकि २० तेलाओं के ४० दिन होते हैं, अतः ८०+४० + १००=२२० दिन तक व्रत करना पड़ता है । व्रत के दिनों में पूजन, सामायिक तथा भावनाओं का चिन्तन विशेष रूप से किया जाता है । मेरू व्रत का प्रारम्भ श्रावण मास से माना जाता है । युग या वर्ष का प्रारम्भ प्राचीन भारत में इसी दिन से होता था । श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से प्रारम्भ कर लगातार २२० दिन तक यह व्रत किया जाता है । एक बार व्रत करने के उपरान्त उसका उद्यापन कर दिया जाता है । प्राचार्य ने बताया है कि तिथिवृद्धि का प्रभाव मेरू व्रत पर कुछ भी नहीं पड़ता है, क्योंकि यह व्रत वर्ष में ७ महीने १० दिन तक करना होता है। इसमें तिथि वृद्धि और तिथि क्षय बराबर होते रहने के कारण दिन संख्या में बाधा नहीं आती है।
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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