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व्रत कथा कोष
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छः घटी और चार घटी प्रमाण घटाने पर तीन प्रकार से व्रत तिथि की स्थिति आ
जाती है ।
विवेचन - पाँच मेरू सम्बन्धी ८० चैत्यालयों के व्रत किये जाते हैं । पहले चार उपवास भद्रशाल वन के चारों मन्दिर सम्बन्धी करने चाहिये । पश्चात् एक वेला करने के उपरान्त नन्दन वन के चार उपवास करने चाहिये, पुनः एक वेला करने के उपरान्त सौमनस वन के चार उपवास किये जाते हैं, पश्चात् एक वेला के उपरान्त पाण्डुक वन के चार उपवास किये जाते हैं, उपरान्त एक वेला करनी चाहिये । इस प्रकार एक मेरु के सोलह प्रोषधोपवास चार तेला तथा बीस एकाशन होते हैं । तात्पर्य यह है कि मेरुव्रत के उपवास में प्रथम सुदर्शन मेरु सम्बन्धी सोलह चैत्यालयों के सोलह प्रोषधोपवास करने पड़ते हैं । प्रथम सुदर्शन मेरु के चार वन हैं
भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक वन । प्रत्येक वन में चार चार जिनालय हैं । व्रत करने वाला प्रथम भद्रशाल वन के चारों चैत्यालयों के प्रतीक चार प्रवास करता है । प्रथम वन के प्रोषधोपवासों में प्राठ दिन लगते हैं । अर्थात चार प्रोषधोपबास और चार पारणाएं इस प्रकार आठ ही दिन लग जाते हैं अर्थात चार प्रोषधोपवास और चार पारणाएं करनी पड़ती हैं ।
सौमनस बन के प्रतीक चारों चैत्यालयों के चार उपवास और चार पारणाएँ करनी पड़ती हैं । इसी प्रकार पाण्डुक बन के उपवासों में भी चार प्रोषधोपवास और पाररंगाएँ की जाती हैं। इस प्रकार प्रथम सुदर्शनमेरू के सोलह चत्यालयों के प्रतोक सोलह उपवास, पारणाएँ और प्रत्येक वन के उपवासों के अन्त में एक तेला दो दिनका उपवास, इस तरह कुल चार तेलाएं करनी पड़ती हैं। प्रथम मेरु के व्रतों में कुल ४४ दिन लगते हैं । १६ प्रोषधोपवास के १६ दिन, १६ पारणाओं के १६ दिन और ४ तेलाओं के ८ दिन तथा प्रत्येक तेला के उपरान्त एक पारणा की जाती है । अतः ४ तेलात्रों सम्बन्धी ४ दिन इस प्रकार कुल १६ + १६+६+४= ४४ दिन प्रथम मेरु के व्रतों में लगते हैं । ४४ दिन पर्यन्त शील व्रत का पालन किया