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________________ व्रत कथा कोष जातो है । उदाहरण के लिए यों समझना चाहिये की सोमवार को अष्टमी ७ घटी ३० पल है, पश्चात् नवमी प्रारम्भ हो जाती है। वहां अष्टम) पर या पूर्व तिथि है, जो नवमी से संयुक्त है; क्योंकि ८ घटी ३० पल के उपरान्त नवमी तिथि मंगलवार को लिखि मिलेगी। अतः उदय काल में ही तिथि का प्रमाण लिखा जाता है । अथवा यों कहना चाहिये कि पारणा तिथि का ही तिथ्यादि मान पंचांग में अंकित रहता है, उत्तर तिथि का नहीं । जो तिथि पञ्चांग में अंकित है वह पर या पूर्व तिथि है और जो अंकित नहीं है; वह उत्तर तिथि कहलाती है । पुनरागत पूर्व तिथि वह है, जो उत्तर तिथि के समाप्त होने पर अगले दिन पाने वाली हो । जैसे पूर्व उदाहरण में अष्टमी के उपरान्त नवमी तिथि बतायी गयी है, यदि इसी दिन नवमी भी समाप्त हो जाय और पुनरागत दशमी से संयुक्त हो तो यह उत्तरतिथि पुनरागत पूर्व तिथि से संयुक्त कही जाती है । व्रत के लिए यह तिथि त्याज है। तिथितत्त्व नामक ग्रन्थ में बताया गया है कि दो प्रकार की तिथियां होती हैं-परयुक्त और पूर्वयुक्त । व्रत विधि के लिए द्वितीया, एकादशी, अष्टमी, त्रयोदशी और अमावस्या परयुक्त होने पर ग्राह य नहीं हैं। अभिप्राय यह है कि इन तिथियों को व्रत के लिए पूर्ण होना चाहिए । जब तक ये तिथियां दिनभर नहीं रहेंगी, इनमें प्रतिपादित व्रत नहीं किये जा सकते हैं । उदाहरण के लिए यो समझना चाहिये कि अष्टमी तिथि यदि उदयकाल में ७ घटी ३० पल है तो परयुक्त होने के कारण इस दिन व्रत नहीं करना चाहिए । परन्तु जैनाचार्य तिथितत्व के इस मत को अप्रामाणिक ठहराते हैं । उनका कथन है कि छः घटी प्रमाण उदयकाल में तिथि के होने पर वह विधेयतिथि व्रत के लिए स्वीकार की गयी है। पुनरप्यन्येषा सेनगणस्य सूरोणां वचनमाह मेरुवतं विना शेषप्रते येनाधिका तिथिः ।। घटयेकर सपद्धोना त्रिविधा तिथि संस्थितिः ।।१७।। अर्थ-व्रत समाप्ति-तिथि की वृद्धि होने पर व्रत के लिए क्या व्यवस्था करनी चाहिए? इसके लिए सेनगण के अन्य प्राचार्यों के मत को कहते हैं-मेरुव्रत के बिना समस्त व्रतों में वृद्धिंगत तिथि जितनी अधिक होती है, उसमें से एक घटी,
SR No.090544
Book TitleVrat Katha kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKunthusagar Maharaj
PublisherDigambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Ritual_text, Ritual, & Story
File Size21 MB
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