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व्रत कथा कोष
एक अन्य हेतु यह भी है कि मेरू व्रत के करने में किसी तिथि का ग्रहण नहीं किया गया है । इस व्रत का तिथि से कोई संबंध नहीं है, यह तो एक दिन उपवास, पश्चात् पारणा इस प्रकार चार उपवास और चार पारणाओं के अनन्तर एक तेला- दो दिन तक लगातार उपवास करना पड़ता है, पश्चात् पारणा की जाती है । इस प्रकार उपर्युक्त विधि के अनुसार उपवास और पारणाओं का संबंध किसी तिथि से नहीं हैं । बल्कि यह व्रत दिन से संबंध रखता है । इसलिए इस व्रत पर तिथिवृद्धि और तिथिक्षय का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता है । प्राचार्य ने इसी कारण मेरू व्रत को छोड़ शेष समस्त व्रतों के संबंध में विधान बतलाया है कि नियत अवधि वाले व्रतों की अंतिम तिथि के बढ़ने पर पारणा की तिथि इस प्रकार निकाली जाती है कि वृद्धा तिथि प्रमाण में से एक घटी, छः घटी और चार घटी प्रमाण घटा देने पर जो शेष प्रावे वही पारणा का समय आता है अर्थात् पारणा के लिए तीन प्रकार की स्थिति बतलाई है ।
तात्पर्य यह है कि यदि वृद्धितिथि अगले दिन छः घटी प्रमाण हो, चार घटी प्रमाण हो अथवा एक घटी प्रमाण हो तो उस दिन व्रत नहीं किया जायेगा, किन्तु पारणा की जायेगी । यदि वृद्धितिथि अगले दिन छः घटी प्रमाण से अधिक है तो उस दिन भी व्रत ही करना पड़ेगा । सेनगण के आचार्यों ने एक मत से स्वीकार किया है कि अगले दिन वृद्धितिथि का प्रमाण छः घटी से ऊपर अर्थात् सात घटी होना चाहिए । बीच में तिथि वृद्धि होने पर उपवास या एकाशन करना चाहिए व्रत की समाप्ति वाली तिथि के लिए ही यह नियम स्थिर किया गया है ।
मेरू व्रत का संबंध श्रावरण के दिन से है, अतः इसकी समाप्ति या मध्य में तिथियों की उदयास्त संज्ञाएं या तिथियों की घटिकाएं गृहीत नहीं की गयी हैं । जिन व्रतों का संबंध चान्द्रतिथियों से है, उनके लिए तिथिवृद्धि और तिथिक्षय ग्रहण किया जाते हैं । प्राचार्य ने यहाँ पर अन्तिम तिथि की वृद्धि होने पर उसकी व्यवस्था बतलाई है ।
मेरु व्रत की विधि - प्रथम मेरू संबंधी व्रतों के दिनों में “ॐ ह्रीं सुदर्शन