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- व्रत कथा कोष
और अन्त में तिथिक्षय होने पर उक्त दोनों व्रतों के लिए क्या व्यवस्था रहेगी? आचार्य सिंहनन्दी ने इस प्रश्न का उत्तर भी उपर्युक्त पद्यों में दिया है। आपने बतलाया है कि प्रादि तिथि का क्षय होने का अर्थ है-दशलक्षण के लिए पंचमी का ही अभाव होना । जब सूर्योदयकाल में पंचमी नहीं रहेगी तो चतुर्थी विद्ध पंचमी ही व्रत के लिए पंचमी मान ली जायेगी। गणित प्रकिया के अनुसार यही सिद्ध होता है कि जब उत्तर तिथि का अभाव होता है तो पूर्व तिथि भी पिछले दिन अल्प प्रमाण ही रहती है, जिससे क्षय होने वाली तिथि उस दिन सिद्ध हो जाती है । तात्पर्य यह है कि जिस पंचमी का प्रभाव हुआ है, वस्तुतः वह उसके पहले दिन उदयकाल में चतुर्थी के रहने पर मुक्त हो चुकी है, जिससे अगले दिन उदय काल में उसका प्रभाव हो गया है । उदाहरण के लिए यों कहा जा सकता है कि बुधवार को चतुर्थी ६ घटी २० पल है, गुरुवार को पंचमी का अभाव है और षष्ठी ५० घटी १६ पल है । ऐसी अवस्था में व्रत के लिए पंचमो कौनसो मानो जायगो ?
बुधवार को ६ घटी २० पल के उपरान्त पंचमी आ जायगी और उसी दिन ५६ घटी २५ पल पर समाप्त हो जाती है। गुरुवार को पंचमी का सर्वथा अभाव है। अतः व्रतारम्भ बुधवार से किया जायगा। यह नियम है कि जब उदयकाल मैं तिथि नहीं मिलती है, तो अपरान्हकालीन तिथि को ग्रहण कर लिया जाता है। अतएव आदि तिथि के क्षय होने पर दशलक्षण व्रत चतुर्थी से और अष्टान्हिका व्रत सप्तमी से किया जाता है। यदि अन्तिम तिथि क्षय हो तो यह व्यवस्था है कि जिस दिन गणित के हिसाब से अन्तिम तिथि पड़तो हो उसी दिन व्रत समाप्त करने चाहिए । अर्थात तिथिक्षय के पहले वाले दिन को व्रत समाप्त हो जाते हैं। कभी ऐसा भी होता है कि व्रत समाप्ति के दिन तिथि एक या दो घटी ही नाम मात्र होती है, ऐसी अवस्था में छः घटी प्रमाण से कम होने के कारण अग्राह्य है, परन्तु क्षय सद्श होने पर भी एक दिन व्रत अवधि में से न्यून रहने के कारण व्रत समाप्नि के लिए छः घटो से कम प्रमाण तिथि भी ग्रहण कर लो जाती है। निष्कर्ष यह है कि अन्तिम तिथि के क्षय होने पर दशलक्षण व्रत नौ दिन तथा अष्टान्हिका व्रत सात दिन तक ही करने चाहिए। एक दिन पहले से व्रत करना ठीक नहीं है।