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व्रत कथा कोष .
अधिका तिथिरादिष्टा व्रतेषु बुधसत्तमैः ।
प्रादिमध्यान्तभेदेषु यथाशक्ति विधीयते ।।१।। अर्थ-दशलक्षण और सोलहकारण व्रत के दिनों की संख्या क्रमशः दश और सोलह है । तिथिक्षय और तिथिवृद्धि में व्रत प्रारंभ करने की तिथि से लेकर व्रत समाप्त करने की तिथि तक दिनों की संख्या न्यूनाधिक भी होती है । मध्य में क्षय होने पर दिनों की संख्या कम होती है । और तिथिवद्धि होने पर दिनों की एक संख्या बढ़ जाती है।
व्रत के जानकार विद्वान लोगों ने तिथिवृद्धि होने पर एक दिन अधिक व्रत करने का आदेश दिया है। अतः आदि, मध्य और अन्त भेदों में शक्ति के अनुसार व्रत करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि तिथि के बढने पर एक दिन की बजाय वह व्रत दो दिन करना चाहिए। व्रत के आदि, मध्य और अन्त में तिथि के क्षय होने पर शक्ति के अनुसार व्रत करना चाहिए ।
विवेचन-यद्यपि सोलहकारण व्रत के दिनों की संख्या तथा उसकी अवधि के सम्बन्ध में पहले ही विस्तार से कहा जा चुका है । सोलहकारण व्रत में एक तिथि के बढ़ जाने पर दिनों की संख्या बढ़ जाती है, किन्तु व्रत के दिनों मध्य में एक दिन के घट जाने पर दिनों की संख्या में एक दिन कम कर दिया जाता है। यह व्रत भाद्रपद कृष्णा प्रतिपदा से लेकर प्रारम्भ होता है और आश्विन कृष्णा प्रतिपदा को समाप्त किया जाता है अतः बीच की तिथि के नष्ट होने पर भी तिथि अवधि ज्यों की त्यों रहती है । व्रत प्रारम्भ और व्रत समाप्त करने की तिथियां इसमें निश्चित रहती हैं, अतः तिथिक्षय में एक दिन आगे व्रत नहीं किया जाता है और ३१ दिन की जगह व्रत ३० दिन ही किया जाता है।
दशलक्षण व्रत में एक दिन के घट जाने पर एक दिन आगे से व्रत करने की परिपाटी भी है तथा यह शास्त्र सम्मत भी है । दशलक्षण व्रत के बीच में जब किसी तिथि का क्षय रहता है, तब उसे पूरा करने के लिए एक दिन आगे तक व्रत किया जाता है । दस दिनों के स्थान पर यह व्रत कभी नौ दिन तक नहीं किया जाता है।