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व्रत कथा कोष
मूलसड. घे घटीषट्कं व्रतं स्याच्छद्धिकारणम् । .. काष्ठासड. घे च षष्ठांशं तिथेः स्याच्छुद्धिकारणम् ॥२॥ पूज्यपादस्य शिष्यश्च कथितं षट्घटीमतम् ।
ग्राह्य सकलसंघेषु पारम्पर्यसमागतम् ॥३॥
अर्थ-मूलसंघ के प्राचार्यों के मतानुसार छः घटी प्रमाण तिथि का मान है । काष्ठसंघ के प्राचार्यों के दो मत हैं- एक सिद्धान्त के प्राचार्य दस घटी प्रमाण व्रत को तिथि का मान बतलाते हैं तथा दूसरे सिद्धान्त के प्राचार्य बीस घटी प्रमाण व्रत की तिथि का मान बतलाते हैं । मूलसंघ में व्रत की शुद्धि छः घटी प्रमाण तिथि होने पर मानी है, किन्तु काष्ठासंघ में षष्ठांश प्रमाण तिथि ही व्रतशुद्धि का कारण मानी गयी है। पूज्यपाद के शिष्यों ने भी छः घटी प्रमाण व्रत तिथि को कहा है । इस तिथि प्रमाण को ही परम्परागत प्राचार्यों के मतानुसार ग्रहण करना चाहिए।
विवेचन-व्रततिथि के निर्णय के सम्बन्ध में अनेक मतमतान्तर हैं । मूलसंघ, काष्ठासंघ, पूज्यपाद आदि प्राचार्यों की परम्परा के अनुसार व्रततिथि का मान भी भिन्न-भिन्न प्रकार से लिया गया है। यद्यपि व्यवहार में मूलसंघ के प्राचार्यों का मत ही प्रमाण माना गया है, फिर भी विचार करने लिए यहां सभी मतों का प्रतिपादन किया जा रहा है।
काष्ठासंघ के प्राचार्यों में दो प्रकार के सिद्धान्त पाये जाते हैं। कुछ प्राचार्य तिथि का प्रमाण षष्ठांश मात्र और कुछ तृतीयांश मात्र मानते हैं । तृतीयांश मात्र प्रमाण मानने वालों का कथन है कि जितनी अधिक तिथि व्रत के दिन सूर्योदयकाल में होगी, उतना ही अच्छा है। क्योंकि पूर्ण तिथि का फल भी पूरा ही मिलेगा । मध्यमान तिथि का ६० घटी होता है, अतः तृतीयांश का अर्थ २० घटी मात्र है। यदि स्पष्ट तिथि का मान निकालकर तृतीयांश लिया जाय तो अधिक प्रमाणिक न होगा। परन्तु स्पष्ट तिथि के मान का गणित करना होगा तभी तृतीयांश ज्ञात हो सकेगा।