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व्रत कथा कोष
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जब कभी दो चतुर्दशियां अष्टान्हिका व्रत में पडती हैं तो तीन उपवास के पश्चात् प्रतिपदा को पारणा करने का नियम है । साधारणतया चतुर्दशी और पूर्णिमा इन दोनों तिथियों का एक उपवास करने के उपरान्त प्रतिपदा को पारणा की जाती है । अष्टान्हिका व्रत का महाभिषेक पूर्णिमा को ही हो जाता है।
या तिथि प्रतपूर्णे तु वृद्धिर्भवति सा सदा । -
तस्यां नाडी प्रमाणायां पारणा क्रियते व्रतस्य ॥१६॥ अर्थ-व्रत की समाप्ति होने पर जो तिथि वृद्धि को प्राप्त होती है, यदि वह एक नाडी-घटी प्रमाण हो तो उसमें पारणा की जाती है । अभिप्राय यह है कि जब व्रत की समाप्तवाली तिथि की वृद्धि हो तो प्रथम तिथि में व्रत की समाप्ति कर द्वितीय तिथि छः घटी प्रमाण से अल्प हो तो उसी में पारणा करना चाहिए। यदि छः घटी प्रमाण से द्वितीय तिथि अधिक हो या छः घटी प्रमाण हो तो उसी में ही व्रत की समाप्ति करनी चाहिए ।
विवेचन-जब व्रत समाप्ति वाली तिथि की वृद्धि हो तो प्रथम या द्वितीय तिथि को व्रत को पूर्ण करना चाहिए? इस पर प्राचार्यों के दो मत हैं-प्रथम मत प्रथम तिथि को व्रत की समाप्ति कर अगली तिथि के एक घटी प्रमाण रहने पर पारणा करने का विधान करता है । दूसरा मत अगली तिथि के छः घटी या इससे अधिक होने पर उस दिन व्रत समाप्ति पर जोर देता है तथा अगले दिन पारणा करने का विधान करता है । जैनाचार्यों ने तिथिवृद्धि होने पर व्रत करने की अवधि का बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया है ।
गणितज्योतिष व्रत के लिये दो तिथियों को ग्राह्य नहीं मानता, इसकी दृष्टि में तिथि बढती ही नहीं है और न कभी तिथि का अभाव होता है । तिथिवृद्धि और तिथिक्षय साधारण व्यक्तियों को मालूम होते हैं । हां, यह बात अवश्य है कि दो तिथियाँ परस्पर में विद्धप्रायः रहती हैं । पर तिथिवृद्धि उत्तरतिथि से संयुक्त तथा उत्तरतिथि पुनरागत पूर्वतिथि से संयुक्त होती है । व्रत में पूर्वतिथि उत्तरतिथि से संयुक्त ग्राह्य की गयो है, उत्तरतिथि पुनरागत पूर्वतिथि से संयुक्त ग्राह्य नहीं की