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व्रत कथा कोष
विधान करना चाहिए, क्योंकि अधिक दिन तक करने से अधिक फल की प्राप्ति होती है । अतः तिथिवृद्धि होने पर व्रत एक दिन कम करने की आपत्ति नहीं आती है ।
विवेचन-नियत अवधिवाले देवसिक और नैशिक व्रतों के मध्य में तिथिक्षय और तिथि वृद्धि होने पर उन व्रतों के दिनों की संख्या को निर्धारित किया है । तिथिक्षय होने पर एक दिन पहले से व्रत करना चाहिए, किन्तु तिथिवृद्धि होने पर एक दिन बाद तक नहीं किया जाता है । तिथिक्षय में नियत अवधि में से एक दिन घट जाता है, जिससे दिनसंख्या नियत अवधि से कम हो जाने के कारण अष्टान्हिका और दशलक्षण जैसे व्रतों में एक दिन कम हो जाने का दोष आयेगा । अष्टान्हिका व्रत के लिए पाठ दिन निश्चित हैं। तथा यह व्रत शुक्लपक्ष में किया जाता है । तिथिक्षय होने पर शुक्ल पक्ष में ही एक दिन पहले से व्रत करने की गुजाइश है; क्योंकि अष्टमी के स्थान में सप्तमी से भी व्रत करने पर शुक्लपक्ष ही रहता है। इसीप्रकार दशलक्षण व्रत में भी चतुर्थी से व्रत करने पर शुक्ल पक्ष ही माना जायगा । यहां एक-दो-दिन पहले भी व्रत कर लेने पर पक्ष या मास बदलने की संभावना नहीं है । जिस नियत अवधिवाले व्रत में पक्ष या मास के बदलने की सम्भावना प्रकट की गयी है, उसमें व्रत निश्चित तिथि से ही प्रारम्भ किया जाता है। जैसे षोडशकारण व्रत के सम्बन्ध में पहले कहा गया है कि तिथि के घट जाने पर भी यह व्रत प्रतिपदा से ही प्रारम्भ किया जायगा । तिथिक्षय का प्रभाव इस व्रत पर नहीं पड़ता है और न तिथिवृद्धि का प्रभाव ही कुछ होता है।
__ तिथिवृद्धि हो जाने पर व्रत एक दिन अधिक किया जाता है, इसकी दिनसंख्या तिथि-वृद्धि के कारण घटती नहीं, बल्कि बढ़ी हुई तिथि में भी व्रत किया जाता है । अष्टान्हिका व्रत की तिथियों के बीच में यदि एक तिथि बढ़ जाय तो उस बढ़ी हुई तिथि को भी व्रत करना होगा । तिथिवृद्धि के समय व्रत-तिथि का निर्णय यही है कि जिस दिन व्रतारम्भ करने की तिथि है उसका भी व्रत करना पड़ेगा। तिथि वृद्धि का परिणाम यह होगा कि कभी-कभी वेला दो उपवास कर जाना पड़ेगा। तथा कभी ऐसा भी अवसर पा सकता है, जब दो दिन लगातार पारणा ही की जाय । उदाहरण के लिए यों समझना चाहिए को मंगलवार को अष्टमी पूरे दिन है, बुधवार को भी प्रातः काल अष्टमी तिथि का प्रमाण ५ घटी १३ पल है।