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व्रत कथा कोष
काऽधिका तिथिमध्ये च क्षपणो नैव कारयेत् ।
गारिणतोदिष्टमार्याणां संरामादिप्रसाधम् ।।१३।।
अर्थ-प्राचार्यों ने व्रत के दिनों में तिथिवृद्धि हो जाने पर किस तिथि को व्रत करने का व्रती के लिए निषेध किया है ? तात्पर्य यह है कि शिष्य गुरू से प्रश्न करता है कि हे प्रभो ! अपने तिथिक्षय होने पर व्रत करने का विधान बतला दिया, अब कृपा कर यह बतलाइये कि संयमादि का साधन व्रततिथिवृद्धि होने पर किस दिन नहीं करना चाहिए?
विवेचन-ज्योतिषशास्त्र में तिथिक्षय होने पर तथा तिथिवृद्धि होने पर व्रत की तिथियों का निर्णय बतलाया गया है। सिंहनन्दी आचार्य ने पूर्व में तिथिक्षय होने पर व्रत कब करना चाहिए? तथा नियत अवधिवाले व्रतों को मध्य में तिथिक्षय होने पर कब करना चाहिये ? इसका विस्तार सहित निरूपण किया है । यहां से आचार्य तिथिवृद्धि के प्रकरण का वर्णन करते हैं कि तिथि के बढ़ जाने पर क्या एक दिन व्रत ही नहीं किया जायगा ? प्राचार्य स्वयं इस प्रश्न का उत्तर आगे वाले श्लोक में देंगे । यहां यह विचार करना है कि तिथि बढ़ती क्यों है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि तिथि का मध्यम मान ६० घटी बताया गया है, किन्तु स्पष्ट मान सदा घटता-बढ़ता है । इस वृद्धि और ह्रास के कारण ही कभी कभी एक तिथि की हानि और कभी कभी एक तिथि की वृद्धि हो जाती है । गणित द्वारा तिथि का साधन निम्नप्रकार किया गया है -
स्पष्ट चन्द्रमा में से स्पष्ट सूर्य को घटाकर जो शेष आवे उसके प्रशादि बना लेना चाहिए। अशादि में १२ का भाग देने पर लब्ध तुल्यगत तिथि होती है और जो शेष बचे, वह वर्तमान तिथि का भुक्तभाग होता है । इस भुक्तभाग को १२ अंशों में से घटाने पर वर्तमान तिथि का शेष भोग्यभाग आता है। इस भोग्यभाग को ६० से गुणा कर गुणनफल में चन्द्रसूर्य के गत्यन्तर का भाग देने से वर्तमान तिथि के भोग्य-घटीपल निकलते हैं । उदाहरण-स्पष्ट चन्द्रमा राश्यादि २/१४/४३/३४ में से स्पष्ट सूर्य राश्यादि ८/२३३/३०/४ घटाया तो शेष राश्यादि ५/२१/१३/३० इसके अंशादि बनाये तो १७१/१३/३० हुए। इनमें १२ का भाग दिया तो लब्धितुल्य