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व्रत कथा कोष
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अत्र केषाञ्चिद् बलात्कारीणां षोडशदिवसाधिकत्वाच्चेति विशेषः । एतावामपि विशेषश्च प्रतिपदमारभ्य अश्विनप्रतिपत्पर्यतं तिथिक्षयाभावेन कृते षष्ठ द्वयेन
कत्रिशदिनैः पाक्षिकेष्वेव समाप्तिः। सत्पदशोपवासेन पूर्णाभिषेकेन स्यादेव सोपवासो महाभिषेकं कुर्यात् । यदा तु तिथिहानिस्तदा षष्ठकारण मारभ्य प्रतिपदेव पूर्णाभिषेकः नापरदिने तथोक्तं षोडशकारण वारिदमाला रत्नत्रयादीनां पूर्णाभिषवे प्रतिपत्तिथिरपि नापरा ग्राह्योति वचनात् अपरा द्वितीया न ग्राह्यति । ..
अर्थ-षोडशकारण व्रत के दिनों में एक तिथि की हानि होने पर भी एक दिन पहले से व्रत नहीं किया जाता है । इससे व्रतहानि की प्राशंका भी उत्पन्न नहीं होती है । तिथि की हानि होने पर दो उपवास लगातार पड़ जाते हैं ।
बोचवाली पारणा नहीं होती है। एक दिन पहले व्रत न करने से षोडशकारण भावनाओं में से किसी एक भावना की तथा उपवास को हानि नहीं होती है । क्योंकि प्रतिपदा से लेकर प्रतिपदा पर्यत ही व्रत करने का विधान है। इसमें तीन प्रतिपदाओं का होना आवश्यक है, क्योंकि इस व्रत को मासिक व्रत कहा गया है । अतः इसमें तिथि को अपेक्षा मास की अवधि का विचार करना अधिक मावश्यक है। श्रुतसागर, सकलकीर्ति, कृतिदामोदर और उग्रदेव आदि प्राचार्यों के वचनों के अनुसार तिथिहानि होने पर भी पूर्णमासी व्रत के लिये कभी भी ग्रहण नहीं करनी चाहिये।
यहां पर कोई बलात्कारगण के प्राचार्य कहते हैं कि सोलहकारण व्रत के दिनों में तिथि हानि होने पर अथवा तिथिवृद्धि होने पर आदि दिवस भाद्रपद कृष्णा प्रतिपदा व्रत के लिये ग्रहण नहीं करना चाहिये । क्योंकि सोलह दिन से अधिक या कम उपवास के दिन हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि बलात्कारगरण के कुछ प्राचार्य सोलहकारण व्रत के दिनों में तिथिक्षय पा तिथि-वृद्धि होने पर पूर्णिमा या द्वितीया से व्रतारंभ करने की सलाह देते हैं । परन्तु इतनी विशेषता है कि तिथिहानि या तिथि-वृद्धि न होने पर प्रतिपदा से ब्रत प्रारंभ होता है । और आश्विन कृष्णा प्रतिपदा तक इकतीस दिन पर्यत यह व्रत किया जाता है । इस व्रत की समाप्ति तीन पक्ष में ही करनी चाहिये । जब तिथि को हानि नहीं होती हो, तो सोलह उपवास और अभिषेक पूर्ण