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उपासकाध्ययन
आहारदानके योग्य चारों वर्ण है । सभी प्राणो मानसिक वाचनिक और कायिक धर्मके लिए सम्मत हैं।
इसमें शूद्रको आहारदान देनेके योग्य बतलाया है। शूद्रसे यहां सत् शूद्र ही लेना चाहिए । सोमदेवन नीतिवाक्यामृतमें इसको स्पष्ट किया है । सत् शूद्रका लक्षण करते हुए लिखा है, जिनमें एक बार ही विवाह होता है उन्हें सच्छुद्र कहते हैं। आचारविशुद्धि, घर पात्र आदिको निर्मलता और शारीरिक विशुद्धिसे शूद्र भी देव, द्विज और तपस्वो जनोंकी सेवा करनेयोग्य होता है।
सोमदेवके आधारपर ही आशाधरने अपने अनगारधर्मामृतको टोकामें चौथे अध्यायमें एषणासमितिका व्याख्यान करते हुए सच्छूद्रको मुनिदानका पात्र बतलाया है।
___ स्पष्ट है कि सत् शूद्र मुनिदोक्षाका अधिकारी न होते हुए भी मुनिको दान देनेका तो पात्र है ही। और जो मुनिको दान दे सकता है वह जिनपूजा भी कर ही सकता है। सागारधर्मामृतमें भी शूद्रको धर्म धारण करनेका अधिकारी बतलाया है। साधर्मो व्यवहार
सोमदेव सूरिने साधर्मो व्यवहारपर भी यत्र तत्र अनेक बहुमूल्य बातें कही है। मूढतोन्मथन नामक चतुर्थ कल्पमें ब्राह्मणधर्ममें प्रचलित मूढताओंको बतलाते हुए अन्तमें उन्होंने कहा है कि यदि इन मूढताओंको कोई पूरी तरहसे न छोड़ सकता हो तो उसे एकदम जैन धर्मबाह्य मिथ्यादृष्टि नहीं मान लेना चाहिए, किन्तु सम्यग्-मिथ्यादृष्टि समझना चाहिए; क्योंकि सर्वनाश सुन्दर नहीं है। सूर्यको अर्घ देना, ग्रहणमें स्नान करना, संक्रान्ति में दान देना, अग्नि पूजना, श्राद्ध तर्पण आदि करना, धर्म मानकर नदी स्नान करना, वृक्ष वगैरहको पूजना, रत्न, सवारी, यक्ष, शस्त्र आदिको पूंजना आदि जैन दृष्टि से मूढ़ताएं हैं। सामाजिक प्रभाववश इनमें से कोई-कोई मूढता जैन गहस्थ भो कहीं-कहीं अज्ञानवश पालते जाते हैं। ऐसे लोगोंको केवल इतने मात्रसे अजैन नहीं मान लेना चाहिए, किन्तु उनको उस मूढ़ताको छुड़ानेका ही प्रयत्न करना चाहिए।
सम्यग्दर्शनके उपगृहन अंगका वर्णन करते हुए सोमदेवने कहा है कि जैसे माता अपनी सन्तानके अपराधको छिपा लेती है वैसे ही दैववश या प्रमादवश बन गये साधर्मीके अपराधको भी ढकना चाहिए । अशक्तकी गलतीसे धर्म मलिन नहीं होता, किन्तु यदि कोई एक बार गलती करके क्षमा कर दिये जानेपर पुनः वही-वही गलती करे तो ऐसे जान-बूझकर गलती करनेवालेको क्षमादान देना युक्त नहीं। ऐसा करनेसे मार्ग बिगड़ता है।
धर्म और समाजको. रक्षाके लिए एक आवश्यक कार्य है साधर्मी भाइयोंकी मदद करना, उनके कष्टोंको दूर करना और दूसरा आवश्यक कार्य है नये लोगोंको धर्ममें दीक्षित करना। सोमदेवने इन दोनोंकी ओर श्रावकोंका ध्यान आकृष्ट किया है। उनका कहना है कि जो लोग सदाशय नहीं हैं उन्हें जैन धर्मकी ओर लानेको प्रेरणा नहीं करनी चाहिए, किन्तु जो स्वतः उस ओर आना चाहे तो उसके योग्य उसे साहाय्य कर देना चाहिए।
१.सो० उपा० इलो. ७९१ । ३. "सकृत् परिणयनम्यवहाराः सद्राः ॥११॥ आचारानवचत्वं शुचिरुपस्करः शारीरी च विशुद्धिः ___ करोति शूदमपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मसु योग्यम् ॥ १२॥-नीतिवाक्यामृत (त्रयीसमुद्देश )। ३. "दत्तं वित्तीर्ण । कै ? अन्य :-ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यसच्द्रः ।" ४. “शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः शुदयाऽस्तु तारशः।" __ जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ सामास्ति धर्ममाक् ॥ २२॥-सागारधर्मामृत भ०३। ५. सो• उपा० श्लो० १४४ । ६. वही श्लो० १४५।