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प्रस्तावना
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न यहां कोई ब्राह्मण जाति है, न कोई क्षत्रिय जाति है और न वैश्य और शुद्र जातियां हैं । अभागा जोव कर्मोके वशीभूत होकर संसार-चक्रमें भ्रमण करता है।
विद्या आचार आदि सुन्दर गुणोंसे जो रहित है वह ब्राह्मण कुलमें जन्म लेने मात्रसे ब्राह्मण नहीं हो सकता । जो ज्ञानशील और गुणसे युक्त है उसे ही ज्ञानी पुरुष ब्राह्मण कहते हैं।
___ आचार्य जिनसेन (नवमी शती)के महापुराणके सोलहवें पर्वमें लिखा है, प्रजा भगवान् ऋषभदेवके पास आजीविकाका उपाय पूछनेके लिए गयी थी, प्रजाको प्रार्थना सुनकर भगवान ने विचार किया कि विदेहोंमें जिस प्रकारका षटकर्म है और जैसी वर्गों की स्थिति है वैसी ही व्यवस्था यहां भी होनी चाहिए, तभी प्रजा जीवित रह सकती है। इसलिए उन्होंने पीड़ितोंकी रक्षा करना आदि गुणोंके आधारपर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तीन वर्णोंको स्थापना की। बादको उनके पुत्र सम्राट् भरतने इन्हीं तीन वर्गों के मनुष्योंमें-से ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की और उसको गर्भान्वय क्रिया आदिका उपदेश दिया।
कुछ विद्वान् इसे मनुस्मृतिका प्रभाव बतलाते हैं क्योंकि जैन परम्परामें महापुराणसे पूर्व किसी ग्रन्थ ये क्रियाएँ वणित नहीं हैं और न सोलह संस्कारोंकी ही चर्चा है। मेरी दृष्टिसे यह मनुस्मतिका प्रभाव नहीं है, किन्तु प्रतिक्रिया है। मनुस्मृतिने जो ब्राह्मण वर्णको सर्वोच्च पद प्रदान करके शेष वर्णोंको तिरस्कृत किया, भगवज्जिनसेनने उसका समुचित उत्तर दिया है। इस उत्तरमें दो बातें हैं एक ओर तो उन्होंने ब्राह्मणत्व जातिके अहंकारपर करारी चोटें दी हैं, दूसरी ओर उन बातोंको अपनाया भी है जिनके कारण ब्राह्मणत्वको प्रतिष्ठा थी। ऐसा किये बिना वे ब्राह्मणोंके बढ़ते हुए प्रभावके सामने अपने धर्मकी सुरक्षा नहीं कर सकते थे। एक बार मनुस्मृतिको पढ़नेके बाद महापुराणके ३८-३९ पर्वोको पढ़नेसे यह बात स्पष्ट समझमें आ जाती है।
वर्णकी तरह जैनाचार्योंने जातिको भी महत्त्व नहीं दिया प्रत्युत गुणोंको ही महत्त्व दिया है । समन्तभद्राचार्यने कहा है, जिसका आन्तरिक ओज भस्मसे ढका हुआ है उस अंगारकी तरह सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न चाण्डालको भी जिनदेव देव मानते
पद्मपुराणमें रविषेणाचार्यने लिखा है, कोई जाति निन्द्य नहीं है, गुण ही कल्याण करनेवाले हैं। गणधरदेव व्रती चाण्डालको भी ब्राह्मण कहते हैं ।
सोमदेवने ब्राह्मणधर्मकी क्रियाओंका तो खूब विरोध किया है, किन्तु ब्राह्मणजातिपर कोई आक्रमण नहीं किया। उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्णोको रत्नकी तरह जन्मसे ही विशुद्ध माना है और इन तीनोंको ही जिनदीक्षाका अधिकारी बतलाया है। शूद्र को भी उन्होंने एकदम भुला नहीं दिया है, उसे भी यथायोग्य धर्मसेवनका अधिकारी माना है । लिखा है, दीक्षाके योग्य तीन ही वर्ण हैं, किन्तु
१. "न ब्रह्मजातिस्विह काचिदस्तिन क्षत्रियो नापि च वैश्यशुद्ध ।
ततस्तु कर्मानुवशा हितात्मा संसारचक्रे परिभ्रमीति ॥४१॥" २. "विद्याक्रियाचारुगुणः प्रहीणो न जातिमात्रेण भवेत् स विप्रः।।
ज्ञानेन शीलेन गुणेन युक्तं तं ब्राह्मणं ब्रह्मविदो वदन्ति ॥४३॥" ३. "उत्पादितास्त्रयो वर्णाः तदा तेनादिवेधसा।
क्षत्रिया वणिजः शूद्राः क्षतत्राणादिभिर्गुणैः ॥१८॥" ४. "सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहजम् ।
देवा देवं विदुर्भस्मगूढाकारान्तरौजसम् ॥२८॥"-रत्नकरण्डश्रा। ५. "न जातिर्गर्हिता काचित् गुणाः कल्याणकारणम् ।
व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।।२०३॥"-पर्व ११॥